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________________ ८२ . श्री गुणानुरागकुलकम् यः परदोषान् गृह्णाति, सतोऽसतोऽपि दुष्टभावेन । स आत्मानं बनाति, पापेन निरर्थकेनापि ॥९॥ शब्दार्थ - (जो) जो मनुष्य (संताऽसंते वि) विद्यमान और अविद्यमान भी (परदोसे) दूसरों के दोषों को (दुट्ठभावेणं) राग-द्वेष आदि कलुषित परिणाम से (गिण्हइ) ग्रहण करता है (सो) वह (निरत्थएणा वि) निरर्थक ही (पावेणं) निन्दारूप पाप से (अप्पाणं) आत्मा को (बंधइ) बाँधता है। भावार्थ - जो लोग दुष्ट स्वभाव से दूसरे मनुष्यों के सत्यवा असत्य दोषों को ग्रहण करते हैं, वे अपनी आत्मा को बिना प्रयोजन व्यर्थ ही संसार भ्रमण रूप महायन्त्र में डालते हैं, अर्थात् दुर्गति का भाजन बनाते हैं। ... विवेचन - निन्दा करना निरर्थक पाप है, अर्थात् - निन्दा करने से आत्मा में अनेक दुर्गुण पैदा होते हैं, जिससे आत्मा दुर्गति का भाजन बनकर दुःखी होता है। जो लोग अपनी चिह्ना को वश में न रखकर दूसरों की निन्दा किया करते हैं, वे संसार में अत्यंत दुःखी होते हैं। लोभ, हास्य, भय और क्रोध आदि अनेक प्रकार से निरर्थक ही पाप लगता है। निन्दा करने में प्रायः असत्यता अधिक हुआ करती है, जिससे भवान्तर में निकाचित कर्म का बंध होता है, जिसका फलोदय रोते हुए भी नहीं छूट सकता। परापवाद से जिह्वा, मन और धर्म अपवित्र होता है, इसी से उसका फल कटु और निन्द्य मिलता हैं। निन्दा करने से यत् किंञ्जित् भी शुभ फल नहीं मिल सकता, प्रत्युत सद्गुण और निर्मल यश का सत्यानाश होता है, क्योंकि निन्दा करना अविश्वास का स्थान, अनेक अनर्थों का कारण और सदाचार का घातक है। इसी से शास्त्रकारों ने जातिचंडाल, कर्मचंडाल और क्रोधचंडाल के उपरांत निन्दक को भी चौथा चंडाल कहा है, क्योंकि
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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