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श्री गुणानुरागकुलकम्
___८१ "सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः, स चेद्र हातुं न शक्यते। संसद्भिः सह कर्त्तव्यः, सङ्गसङ्गाहिभेषजम् ॥१॥" ____ भावार्थ - हर तरह से ‘सङ्ग त्याग करना चाहिये, किन्तु यह बहुत कठिन है, इसलिये वह सङ्गः सज्जनों का ही करना चाहिये, क्योंकि सङ्गरूपी सर्प का भेषज (औषधि) सत्सङ्ग ही है।
पाठकगण ! इन सब बातों का परिणाम भी यही है कि मनुष्यों को संसार का प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए सत्संगम करने का अभ्यास करते रहना चाहिये, जो निरन्तर सत्समागम करने में उद्यत रहते हैं, वे उक्त ब्राह्मण की तरह अवश्य अपनी उन्नति कर सकते हैं, क्योंकि - अभ्यास से ही सब गुण साध्य हैं। कहा भी है कि -
अभ्यासेन क्रियाः. सर्वाः, अभ्यासात्सकलाः कलाः। . अभ्यासाद्ध्यानमौनाऽऽदि, किमभ्यासस्य दुष्करम् ? ॥१॥
- भावार्थ - अभ्यास से सब क्रियाएँ, अभ्यास से सब कलाएँ, और अभ्यास से ही ध्यान, मौन आदि होते हैं। संसार में ऐसी क्या बात है, जो अभ्यास से साध्य न हो ? अर्थात् - अभ्यास से सभी बात सिद्द हो सकती
... अतएव अपनी उन्नति होने के लिए प्रत्येक मनुष्य को सद्गुणों का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिये, जिससे भवान्तर में भी सद्गुण की प्राप्ति हो। परदोष ग्रहण करने से निरर्थक पाप का बंध होता है -
जो परदोसे गिण्हइ, संताऽसंते वि दुट्ठभावेणं । सो अप्पाणं बंधइ, पावेण निरत्थएणा वि ॥१०॥