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श्री गुणानुरागकुलकम् बालक को उत्तम शिक्षण में नहीं स्थापित करते। वहाँ बालक जन्म से मरण पर्यन्त दुर्गुणी बन जाते हैं और उनका वह जन्म ही नष्ट हो जाता है। इससे बालकों को सुशील और सुशिक्षित लोगों के सहवास में रखना बहुत ही आवश्यक है। बालकों का हृदय कच्चा होता है, उनके हृदय में स्गुण या दुर्गुण की छाया बहुत ही शीघ्र दृढ़ीभूत हो जाती है। इससे माता पिता और अध्यापकों को भी स्गुणी होने की अत्यन्त आवश्यकता है। क्योंकि बालकों का विशेष परिचय इन्हीं लोगों के साथ रहता है। इससे वे इनकी देखादेखी ही अपनी भी प्रवृत्ति कर बैठते हैं। इससे पूज्य वर्गों को उचित है कि अपने सहवासी बालकों के समकक्ष अपनी कोई ऐसी चेष्टा न करें, जिससे उनके हृदय दर्पण पर बुरा प्रतिमास हो, और बालकों को हमेशा सद् गुणी बनाने का प्रयत्न करते रहें, और उनको निन्दा करने की आदत से बचावें। इस प्रकार की व्यवस्था रखने से बालकों के. सद्गणी होने या उत्तम गुण सम्पादन करने का उत्साह नष्ट नहीं होता और वे सदा उत्तम अभ्यास में लीन रहते हैं। ...
पूर्वोक्त बातों के कहने का तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य सत्समागम से सुधरता है और कुसंग से बिगड़ता है। जैसे - बारिश का जल मधुर या सुगन्धित वस्तुओं के संसर्ग से मधुरता या सुगन्धता को, और मलमूत्र या जहरीली वस्तुओं के संसर्ग से तदनुरूप स्वभाव को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का जैसा अभ्यास पड़ता है वैसी ही उसको उत्तमता अथवा अधमता प्राप्त होती है। 'जैसा आहार वैसा उद्गार' इस कहावत के मुताबिक यदि मनुष्य पराये दोषों के तरफ ताक-ताक कर निन्दा करता रहेगा तो वह अवश्य दुर्गुणी हुए बिना नहीं रहेगा। क्योंकि गुण और दोष का अभ्यास