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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् किसी बालक को उसके उत्पन्न होने के कुछ समय बाद एक भेड़िया उठा ले गया और अपने निवास स्थान (भाठी गुफा) में जा रक्खा, किन्तु उस बालक को भेड़िया ने खायां नहीं, प्रत्युत अपने बच्चों की तरह उसको भी पालन किया। बहुत दिनों के बाद लोगों ने उसे जंगल में फिरते देखा। तब उसे बड़े यत्न से पकड़ कर ग्राम में ले गए तो वह बालक मनुष्यों के समान भाषा को न बोल कर भेडिया के सदृश घुर पुराद बोलता, और मनुष्यों को देखकर भाग जाता तथा जीभ से चपचप कर जल पीता और उसी तरह खाया करता था। अर्थात् भेडिया के समान ही उसके सब आचरण देख पड़ते थे। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यादि प्राणियों का अभ्यास क्रम दूसरों के आचरणों के अधीन है,अर्थात् - "तुख्मे तासीर सोहबते असर" याने जैसा सहवास मिलता है वैसा ही अभ्यास कर लेता है और तनुसार उसका स्वभाव भी पड़ जाता है। लिखा है कि. अंबस्स या निंबस्स य, दुण्हं पि समागयाइँ मूलाई। संसग्गेण विणट्ठो, अंबो निबत्तणं पत्तो ॥१॥ भावार्थ - आम और नीम दोनों वृक्ष की जड़ें शामिल ही उत्पन्न हुई, परन्तु-नीम की जड़ के संसर्ग से आम भी अपनी मधुरता के गुण से नष्ट हो कर कडूआपन को धारण कर लेता है। अर्थात् उस आम का स्वभाव छूट जाता है, और कडुआपन के अधीन हो जाता है। - इसी तरह बालक भी संसर्गानुसार आचरणों को स्वीकार कर लेता है। इसलिए माता-पिता आदि को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि बालक दुरात्माओं के संसर्ग से असद् व्यवहार का अभ्यासी न होने पावे। क्योंकि जहाँ माता पिता मोह के वश हो
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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