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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् राजा, गुणवान, दीर्घायु और गुणानुरागी होता है। जिसका स्कंध ऊँचा हो, वह राजमान्य और यशः कीर्ति का पात्र बनता है, जिसकी नासिका ऊँची और सुशोभित हो वह सबका उपकारक तथा जगन्मान्य होता है, जिसका मस्तक ललाट आदि अवयव विस्तीर्ण और मानोपेत हो, वह शूरवीर, सौभाग्यवान, सबके साथ मित्रता रखने वाला और सबका उद्धारक होता है। - इसलिये कहा जाता है कि - उत्तमलक्षण सम्पन्न सर्वाङ्ग सुन्दर रूपवान मनुष्य ही धर्म की योग्यता को प्राप्त कर सकता है और वही पुरुष दूसरों की आत्मा में धर्म का प्रतिभास करा सकता है, क्योंकि - प्रायः देखने में आता है कि जैसी आकृति वाला उपदेश देता है, वैसा ही उसका दूसरों पर प्रभाव पड़ता है, यदि काला कुरूपी अंधा उपदेश करे, तो लोगों के चित्त पर अच्छा असर नहीं पड़ता। .. ३. प्रकृति सौम्य - सुन्दर स्वभाव वाला धर्म के योग्य होता है, अर्थात् - पापकर्म, आक्रोश, बध और चोरी आदि करने का स्वभाव जिसका नहीं होता, वह पुरुष अपने शांत स्वभाव से सब प्राणियों को आनन्दोत्पन् कराने वाला हो सकता है, इसलिये धर्मरत्न की योग्यता प्रकृति सौम्य पुरुष को ही प्राप्त होती है। ४: लोकप्रिय - संसार में जो लोकविरुद्ध कार्य हैं, उनको छोड़ने वाला पुरुष लोगों में प्रियपात्र बन कर गुणग्राही बन सकता है। इहलोकविरुद्ध १. परलोकविरुद्ध २ और उभयलोकविरुद्ध ३. यह तीन प्रकार की विरुद्धताएँ हैं। .. परापवाद, धार्मिक पुरुषों का हास्य पूज्यवर्ग में ईर्ष्या सदाचार का उल्लंघन दाताओं की निन्दा और सत्पुरुषों को दुःख में डालने का प्रयत्न करना इत्यादि 'इहलेकाविरुद्ध' कहा जाता है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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