________________
श्री गुणानुरागकुलकम्
'धन्नूलाल' को निन्दक, मत्सरी और दुष्ट स्वभावी जान कर लोगों ने उस को जाति बाहर किया और राजा के द्वारा उस विदेशी सेठ को नगरसेठ की उपाधि से अलंकृत कराया।
५०
पाठक वर्ग ! मात्सर्य स्वभाव के दोषों को भले प्रकार विचार पूर्वक छोड़ो और अपनी आत्मा को गुणानुरागी बनाओ। यदि गुण सम्पन्न होने पर भी दूसरों के गुण का ग्रहण नहीं करोगे, तो सर्वत्र. तुमको निन्द्य अवस्था प्राप्त होने का अवसर आवेगा और धर्म की योग्यता से पराङ्मुख रहना पड़ेगा, क्योंकि- मत्सरी मनुष्य धर्मरलं की योग्यता से रहित होता है, किन्तु धर्मरत्न के योग्य वही पुरुष है, जो निम्नलिखित सद्गुण सम्पन्न हो -
१. अक्षुद्र - गंभीर बुद्धिवाला हो; क्योंकि - गंभीर मनुष्य मद मात्सर्य से रहित हो धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझकर दुर्गुणों से अपनी आत्मा को बचा सकता है।
योग्य होता है,
>
२. रूपवान - सर्वाङ्ग सुन्दर मनुष्य धर्म के क्योंकि - "यत्राकृतिस्तत्रगुणाः वसन्ति” अर्थात् जहाँ पर सुन्दर मनोहर आकृति हो, वहाँ पर गुण निवास करते हैं । अतएव रूपहीन मनुष्य प्रायः धर्म के योग्य नहीं हो सकता।
कहा भी है कि -
जिसके हाथ रक्त हों, वह धनवन्त, जिसके नीले हों, वह मदिरा पीने वाला, जिसके पीले हो वह परस्त्रीगमन करने वाला, जिसके काले हो, वह निर्धन होता है और जिसके नख श्वेत हों, सो साधु, जिसके हाड़सृदश नख हों, सो निर्धन, जिसके पीले नख हो सो रोगी, पुष्प के समान नखवाला दुष्ट स्वभावी और व्याघ्रसदृश नख वाला क्रूर होता है, जिसके नख पतले हों, वह पुरुष सब का