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श्री गुणानुरागकुलकम् परलोक विरुद्ध वह है कि - पन्द्रह कर्मादान का व्यापार करना, यद्यपि व्यापार करना लोकविरुद्ध नहीं है, तथापि हिंसक. व्यापारों के करने से परलोक में सद्गति की प्राप्ति नहीं हो सकती, इससे हिंसक व्यापारों का करना 'परलोकविरुद्ध' है। ..
__ जिन कार्यों के करने से इस लोक में निन्दा और परलोक में दुर्गति के दुःख प्राप्त हों, उसे उभयलोकविरुद्ध कहते हैं। जैसे जुआँ खेलना, माँस खाना, मदिरा पीना, वेश्यागमन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री से संभोग करना इत्यादि कार्य लोक में निन्द्य तथा तिरस्कार जनक और दुःख के दाता हैं। कहा भी है किइहैव निन्द्यते शिष्टैर्व्यसनासक्तमानसः ।। मृतस्तु दुर्गतिं याति, गतत्राणो नराधमः ॥१॥ .
. भावार्थ - व्यसनों में आसक्त मनुष्य इसी लोक में सत्पुरुषों के द्वारा निन्दा का भाजन बनता है और वह नराधम अशरण होकर मर दुर्गति को प्राप्त होता है, अतएव व्यसनों का सेवन करना 'उभयलोकविरुद्ध' है।
इसलिये लोक विरुद्ध कार्यों का त्याग करने वाला सबका प्रिय बनता है और लोकप्रिय मनुष्य का ही सदुपदेश सबके ऊपर असर कर सकता है।
५. अक्रूरता - मद, मात्सर्य आदि दोषों से दूषित परिणाम वाला पुरुष धर्म का आराधन भले प्रकार नहीं कर सकता, इसलिये सरलपरिणामी मनुष्य ही धर्म के योग्य हो सकता है, क्योंकि - सरल स्वभाव वाला मनुष्य किसी के साथ वैर-विरोध नहीं रखता, यहाँ तक कि वह अपने अपराधी पर भी क्षमा करता है, इससे उसको धार्मिक तत्त्व सुगमता से प्राप्त हो सकता है।