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________________ ४२ श्री गुणानुरागकुलकम् उसका मूल कारण ईर्ष्या ही है। पूर्व समय में जो जो गच्छनायक थे, वे एक-दूसरे की उन्नति देख आनन्दित होकर परस्पर एक-दूसरे के सहायक बनते थे, किन्तु ईर्ष्याभाव कोई किसी से नहीं रखता था, इससे उन्होंने सर्वत्र धर्म की महोन्नति और धर्म प्रचार किया है। . ____ महानुभावो! थोड़ा अपने पूर्वाचार्यों के किये हुए उन्नति मार्ग के कारणों को खोजों और मात्सर्य के दुर्गुण को विचार कर, छोड़ो तो तुम्हारा भी अभ्युदय शीघ्र ही होगा। यदि गुणवानों के गुणों को देखकर आनन्दित न होगे, तो विशेष पराभव होगा और कहीं भी सुख-शांति का मार्ग नहीं मिलेगा, प्रत्युत भवभ्रमण ही करना पड़ेगा। : मत्सर से की हुई निन्दा का फलगुणवंताण नराणं, ईसाभरतिमिरपूरिओ भ्रणसि। जइ कह वि दोसलेसं, ता भमसि भवे अपारम्भि ॥७॥ गुणवंता नराणामीभिरतिमिरपूरितो भणसि। यदि कथमपि दोषलेशं, ततो भ्रमसि भवेऽपारे॥ __ शब्दार्थ - (जइ) तो तूं (ईसाभरतिमिरपूरिओ) अत्यन्त ईर्षारूप अंधकार से पूरित अर्थात् - अंधा बन (गुणवंताण) गुणवान (नराणं) मनुष्यों के (दोसलेस) थोड़े भी दोषों को (कहवि) किसी प्रकार से (भणसि) बोलेगा (ता) तो (अपारम्मि) अपार (भवे) संसार में (भमसि) परिभ्रमण करेगा। विवेचन - मत्सरी मनुष्य दिनान्ध हो घुग्घूकी तरह सद्गुण रूपी सूर्य के प्रकाश को नहीं देख सकता, न सद्गुणों पर आनन्दित होता है, किन्तु दोषा (रात्रि) के समान दोषी के दोषों को देखा करता है, मात्सर्य के कारण गुणवान महात्माओं की निन्दा कर मत्सरी संसार भ्रमण का भाजन बनता है। ईर्ष्यालु मनुष्य अविवेकों से लिपट कर गुरु-शिष्य के
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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