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________________ ४ श्री गुणानुरागकुलकम् संबंध में, पिता-पुत्र के संबंध में और सहोदरों में या जाति में कुसंपरूप वज्रपात किए बिना नहीं रहता, अर्थात् - पूज्यवर्गों की आशातना या निन्दा करने से बिलकुल नहीं डरता, किन्तु जहाँ तक उससे बन पड़ता है, उनकी निन्दा कर महापातिकी बनता है और हृदय की उदारता सुजन वर्ग से गुण प्राप्ति, गुणी-समागम आदि सन्मार्गों से शीघ्र पतित हो जाता है, क्योंकि ईर्ष्या-दूसरों का खंडन, अपना मण्डन, दूसरों का अपकर्ष और अपना उत्कर्ष आदि को उत्तेजन करने की आकांक्षा बढ़ाती है, जैसे - हाथी छाया का अर्थी होकर किसी वृक्ष का आश्रय लेता है और आश्रय (विश्राम) के बाद उसी वृक्ष को छिन्न-भिन्न करने का उद्योग करता है, उसी प्रकार मत्सरी मनुष्य गुणीजनों के आश्रय में रहकर भी उनको पतीत करने में उद्यत बना रहता है और हर एक तरह से उनको दूषित करने के जाल फैलाया करता है। संसार में ऐसा कौन सद्गुण हैं, जो कि मत्सरी लोगों से दूषित न किया गया हो ? कहा भी है कि - जाडूयं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं, शूरे निघृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनी। तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे, तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः॥ ____ भावार्थ - दुर्जन - मात्सर्यादि दोष सम्पन्न लोग लज्जा संयुत पुरुष को जड़-मूर्ख कहते हैं और व्रतधारक को दंभी-ठगोरा कहते हैं, निर्मल आचार पालन करने वालों को धूर्त, पराक्रमी मनुष्य को निर्दयी-दयाहीन, सरल को बुद्धिहीन प्रिय-मधुर हितकारी वचन बोलने वालों को दीन, तेजस्वी को गर्विष्ट-अभिमानी, बुद्धिमान् को वाचाल, स्थिर चित्तवाले को अर्थात् - संतोषी
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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