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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ४१ आदि दोषों का अभाव है, और जहाँ स्वार्थ रहित हो परहित परायणता है वहाँ पर अनीति मार्ग का अनुकरण स्वप्न में भी नहीं किया जायगा और न वैसा शिक्षण ही दिया जायगा। . इसी वास्ते ग्रन्थकारों ने हर एक नीति का शिक्षण गुरुगम से प्राप्त करना उत्तम कहा है। परिपूर्ण विद्वान होने पर भी गुरुगम्य-धार्मिक रहस्यों को अच्छी तरह नहीं जान सकता। कहा भी है कि - विनों गुरुभ्यो गुणनीरधीभ्यो, धर्म न जानाति विचक्षणोऽपि। आकर्णदीर्घोज्वललोचनोऽपि, दीपं विना पश्यति नान्धकारे ॥१॥ भावार्थ - सद्गुणरत्नों के रत्नाकर (समुद्र) गुरुवर्य की कृपा के बिना बुद्धिमान मनुष्य भी धर्म को नहीं जान सकता है। जैसे - कोई मनुष्य बड़े-बड़े निर्मल लोचन होने पर भी अंधकार स्थित वस्तुओं को दीपक के प्रकाश के बिना नहीं देख सकता। . . दीपक की तरह गुरुवर्य धार्मिक मर्मों को स्पष्ट रूप से दिखाते हुए हृदय स्थित मिथ्यात्व रूप अंधकार को नष्ट कर नीति का प्रकाश कर सकते हैं। श्रावक वर्ग में नीति का सुधार तभी हो सकता है कि - जब गच्छनायक परस्पर सहनशीलता और मैत्रीभाव को धारण कर सर्वत्र नीति मय उपदेश देवें और उसी के अनुसार उनसे बर्ताव करा कर उनको मात्सर्य से विमुख करें। क्योंकि मात्सर्य दोष पराभव और अवनति का मुख्य धाम है, इसके विनाश किये बिना उन्नति और विजय नहीं हो सकता। ईर्ष्या ही मनुष्यों के उत्तम विचार, बुद्धि, सत्कार्य और उत्साह आदि को नष्ट कर देती है। जैन समाज का वर्तमान समय में जो अधःपतन होकर प्रतिदिन ह्रास हो रहा है,
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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