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________________ ३७ श्री गुणानुरागकुलकम् महानुभावों ! शस्त्राकारों ने द्रव्यजैन, और भावजैनों का स्वरूप अनेक प्रकार से प्रतिपादन किया है, यदि वह यहाँ लिख दिया जाय तो ग्रन्थ बहुत बढ़ जाने की संभावना है। इसलिये यहाँ संक्षेप से दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। वर्तमान समय में द्रव्यजैन प्रायः विशेष दिखाई देते हैं, परन्तु बुद्धिमानों को चाहिये कि भावजैनत्व के गुणों को धारण करें, क्योंकि भावजैनत्त्व के बिना आत्मसुधार नहीं हो सकता, इससे कदाग्रह और आत्मश्लाघा को छोड़कर गुणानुरागी बनो और उत्तरोत्तर सद्गुण संग्रह करने में प्रयत्नशील रहो, जिससे कि आत्मकल्याण होवे। मात्सर्यदुर्गुण ही सर्वत्र पराभव का हेतु है - सोउण गुणुक्करिसं, अन्नस्स करेसि मच्छरं जइ वि। ता नूणं संसारे, पराभवं सहसि सव्वत्थ ॥६॥ (श्रुत्वा गुणोत्कर्षमन्यस्य करोषि मत्सरं यद्यपि। ततो नूनं संसारे, पराभवं सहसि सर्वत्र ॥६॥) __ शब्दार्थ - (जइवि) यद्यपि - जो तूं (अन्नरस) दूसरे के (गुणुक्करिसं) गणों के उत्कर्ष को (सोऊण) सुन करके (मच्छर) मात्सर्यभाव को (करेसि) धारण करता है (ता) तिससे (नृणं) निश्चय से (संसारे) संसार में (सव्वत्थ) सब जगह (पराभवं) पराभव को (सहसि) सहन करता है ॥६॥ ___ भावार्थ - यदि गुणवानों के उत्तम गुणों को देख या सुनकर अपने मन में मात्सर्यभाव को अवकाश देगा, तो तूं सब जगह संसार में पराभव (निन्द्य अवस्था) को सहेगा, अर्थात् - प्राप्त होगा।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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