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________________ ३६ श्री गुणानुरागकुलकम् "द्रव्यजैन" वे कहे जाते हैं, जो आंतरिक श्रद्धा से नहीं, किन्तु परम्परा या रूढ़ि से धार्मिक व्यवहार साँचवते हैं, तथा जो कन्याविक्रय करते हैं, और जो अपने स्वधर्मियों का अपमान कर विधर्मियों की उन्नति करने में तत्पर रहते हैं एवं जो लोक दिखाऊ या अपनी प्रशंसा के वास्ते धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, और जो अपनी बात रखने के लिये सद्गुरुओं की अवहेलना (तिरस्कार) करते हैं और जो अपने गच्छ के ममत्व में पड़कर जाति या धर्म में विग्रह फैलाते हैं, और जो मद मात्सर्य आदि अनेक दुर्गुणों में लीन . रहते हैं। वास्तव में द्रव्यजैन दृष्टिरागान्ध होकर वास्तविक धर्म से पराङ्मुख रहते हैं। _ "भावजैन" उनको कहते हैं, जो अनन्त सुखात्मक जिनाज्ञाओं का पालन करते हैं, तथा कषायभाव से अपनी आत्मा को बचा करं हर एक कार्य में प्रवृत्त होते हैं, और निरपेक्ष होकर गुणीजनों की प्रशंसा; जिनेश्वरों की आराधना और सत्तत्त्वों का अभ्यास करते हैं तथा जिह्वा को नियम में रखकर मधुर और सत्यवचन बोलते हैं, एवं किसी का मर्मोद्घाटन नहीं करते और जो आपत्ति काल में भी धर्म को नहीं छोड़ते और जो दुराचारियों की संगति छोड़कर सबके साथ समभावपूर्वक उचित व्यवहार रखते हैं तथा जो स्वधर्मी को अपने भाई से भी अधिक सन्मान देते हैं, और जो वैभव में मान अथवा दरिद्रता में दुःख लेशमात्र भी नहीं रखते, एवं जो शत्रु की भी निन्दा नहीं करते तथा जो अपनी सभ्यता का कभी त्याग नहीं करते। भावजैनों का हृदय उदार, गंभीर और गुणानुराग सम्पन्न होता है, इसीसे दृष्टिराग में न पड़कर सत्समागम और सत्यमार्ग पर कटिबद्ध रहते हैं।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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