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श्री गुणानुरागकुलकम् मार्ग से भ्रष्ट करने में उद्यत बने रहते हैं। अभिमान के वश से दृष्टिराग में फंसे हुए लोगों को चाहे जिस प्रकार से समझाया जाय, परन्तु वे अपने असदाग्रह को छोड़ते नहीं है। प्रत्युत सत्य बातों को दूषित करने में सावधान रहते हुए सत्य मार्ग को स्वीकार नहीं करते, और न उनका अनुमोदन ही करते हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य स्वकृत 'वीतरागस्तोत्र' में लिखते हैं कि - कामरागस्नेहरागा - वीषत्करनिवारणौ। दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि ॥१॥
भावार्थ - कामराग, (विषय की अभिलाषा से स्त्री में रहा हुआ जो प्रेम) तथा स्नेहराग (स्नेह के कारण से पुत्रों के उपर रहा हुआ माता-पिताओं का जो प्रेम) ये दोनों राग तो थोड़े उपदेश से निवारण किये जा सकते हैं, किन्तु दृष्टिराग (स्वगच्छ में बंधा हुआ दुराग्रह - ममत्वभाव) तो इतना खराब होता है कि - सत्पुरुषों को भी छोड़ना कठिन है, अर्थात् - गच्छममत्त्व में पड़े हुए- अच्छे-अच्छे विद्वान् - आचार्य-उपाध्याय-साधु वर्ग भी अपना दुराग्रह शास्त्रविरुद्ध होते हुए भी उसे छोड़ते नहीं हैं और कुयुक्तियों के द्वारा सत्य बात का उपहास कर अनीति मार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं। दृष्टिराग से ही मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ-भावना का नाश होता है और लोग कलह में प्रवृत्त होते हैं तथा धर्म के रास्ते को भूल कर दुर्गति के भाजन बनते हैं किन्तु, सत्य धर्म को अंगीकार नहीं कर सकते। __ यहाँ पर यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि - दृष्टिराग तो दूसरे मतवालों के होता है, जैनों के तो नहीं ?
इसका उत्तर यह है कि जैन दो प्रकार के हैं - एक तो द्रव्यजैन और दूसरे भावजैन।