SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ श्री गुणानुरागकुलकम् स्त्रियों के स्नेह को छोड़ना भी कुछ कठिन नहीं समझते एवं व्याकरण-कोष-काव्य-अलंङ्कार-न्याय-वेदान्त-आगम-निगम आदिशास्त्रों को पढ़ कर विद्वत्ता भी प्राप्त कर लेते हैं और अनेक कष्ट उठाते हैं, परन्तु प्रायः अभिमान, स्वप्रशंसा, परनिन्दा और ईर्ष्या आदि दोषों को नहीं छोड़ सकते। यह बात कही हुई भी है कि - कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान बड़ाई ईर्ष्या, दुरलभ तजनी एह ॥१॥ ___ इसलिये अभिमान को छोड़कर गुणानुराग पूर्वक जो अनुष्ठानादि क्रिया की जायँ, तो वे फलीभूत हो सकती हैं, क्योंकि - दूसरों के गुणों पर अनुराग या उनका अनुमोदन करने से निर्गुण मनुष्य भी गुणवान बन जाता है। हर एक दर्शनकारों का मुख्य सिद्धांत यह है कि अभिमान और मात्सर्य, विनय-शील-तप-सन्तोष आदि सद्गुणों के घातक और सत्यमार्ग के कट्टर द्रोही हैं। अभिमान से गुणी जनों के सद्गुणों पर अनुरागी न बनकर दुर्गति के भाजन बनते हैं और इसी के आवेश में लोग दृष्टिरागी बन कर "मैं जो कहता हूँ या करता हूँ सोही सत्य है, बाकी सब असत्य है" ऐसी भ्रांति में निमग्न हो, विवेक शून्य बन जाते हैं। दृष्टिराग से अंधे लोग सत्य के पक्षपाती न बनकर असदाग्रह पर आरूढ़ रहते हैं, अर्थात् वीतराग भगवान् के वचनों का आदर न कर केवल अपनी पकड़ी हुई कल्पित बात को ही सिद्ध करने में दत्तचित्त रहते हैं और उसी की सिद्धि के लिये कुयुक्तियाँ लगाकर जिन वचन विरुद्ध कल्पित पुस्तकें निर्मित कर भद्र जीवों को सत्य
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy