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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् विवेचन - महात्माओं और गुणवान् पुरुषों की समृद्धि विद्वत्ता, योग्यता और यश: कीर्ति अथवा अर्चना (पूजा) को देख सुनकर अपने हृदय में आकुलित (दुःखित) होने का नाम 'मात्सर्य है। संसार में मात्सर्य - ईर्षालुस्वभाव ऐसा निन्दनीय दुर्गुण है, जो समय गुणों और उन्नति मार्गों पर पानी फेर देता है और सब जगा वैर-विरोध बढ़ा कर निन्द्य अवस्था पर पहुँचा देता है। ३८ सब दर्शनकारों का यही मन्तव्य है कि - भूमण्डलस्थित सम्पूर्ण विद्याओं और कलाओं को सीख कर ऐहिक ( इस लोक संबंधी) योग्यताओं को प्राप्त कर लो, परन्तु जब तक मुख से दूसरों की निन्दा, आंतरिक मात्सर्य और दोषारोप आदि का अश्लील (लज्जाजनक) स्वभाव न मिटेगा, तब तक वे ऐहिक योग्यताएँ सर्प की तरह भयङ्कर और पलालपुञ्ज की तरह असार - व्यर्थ ही हैं । यहाँ पर विचार करने से स्पष्ट जान पड़ता है कि मत्सरी लोगों में जो ज्ञान, ध्यान, कला आदि सद्गुण देखे जाते हैं, वे केवल बाह्याडम्बर मात्र, निस्सार और अज्ञान रूप ही हैं, क्योंकि - मात्सर्ययुक्त मनुष्य अधम लोगों की गणना में गिना गया है। इससे मत्सरी में जो गुण हैं, वे अधमस्वभाव से मिश्रित होने से अधमरूप (दोषदूषित) ही है। वास्तव में मत्सरी सदा दोष संग्राहक ही होता है, इसलिए कोई पुरु चाहे जैसा गुणवान् और क्रियापात्र हो, परन्तु वह उसमें भी दोषों के सिवाय और कुछ नहीं देखता । - जैसे काकपक्षी सरस और सुस्वादु जल व भोजन को छोड़ कर अत्यंत दुर्गंधि जल व भोजन के उपर ललचाता है । उसी प्रकार मत्सरी लोग गुणीजनों के उत्तम सद्गुणों पर अनुरागी न बन कर
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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