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आचार्य पदार्पण के समय उनका नाम हीरविजयसूरि रखा गया । वि. सं. १६२२ में वडावली (गुजरात) में आचार्यवर श्री दानसरि महाराज का स्वर्गवास होने से आप गच्छनायक बने । . ... बादशाह अकबर की ओर से उनको आमन्त्रण । वि. सं. १६३९, मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी को गन्धार (गुजरात) से विहार एवं उसी वर्ष की ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी को फतेपुर सीक्री में बादशाह
से भेंट ।
आपके चारित्र्य एवं ज्ञान का बादशाह पर अनन्य प्रभाव पडा और अहिंसा के पथपर बादशाहने पदार्पण किया । .. महाकाव्य एवं उसकी व्याख्या . .
प्रस्तुत महाकाव्य 17 सर्गों में विभक्त है । कुल मिलाकर पद्य संख्या 2789 है । टीका का श्लोकाग्र 9745 है ।
पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या में समय समय पर 'रघुवंश' एवं 'नैषध' जैसे काव्यों के अवतरण देकर अपनी बात कविने पुष्ट की है । व्याकरण विषयक चर्चा में 'क्रियाकलाप' जैसे ग्रन्थों को उद्धत किया है । चाचिलि [ सर्ग १४, श्लोक ७३ ] प्रयोग सिद्ध करने के लिए 'प्रक्रिया कौमुदी' का आश्रय लिया है।
____ उस समय में प्रचलित कतिपय गुजराती शब्द भी व्याख्या में दृष्टिगोचर होते है। जैसे कि, सूरवाय [ स. ९, श्लोक ९२ ], हिन्दु [पृ. ६१८ ], कथीयो [पृ. ९०२ ], मांडवो [पृ. ९४२ ], घांट [ पृ. ९०२ ], अणाव्युं [ पृ. ६७५] आदि । ग्रन्थकार एवं उनकी अन्य कृति - ग्रन्थकार देवविमल गणी विमलसिंहविमल गणी के शिष्य थे।