________________
11
सत्रहवीं शती के द्वितीय और तृतीय चरण निर्धारित किया है । उन्होंने लिखा है कि वि. सं. १६३९ में प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना प्रारंभ हुई एवं वि. सं. १६५६ में ग्रन्थ पूर्ण हुआ !
रचना समय के आकलन के आधार स्तंभों में पहला स्रोत है उपाध्याय धर्मसागरजी रचित स्वोपज्ञ ' गुरु परिवाडी' की टीका वि. सं. १६४८ में पूर्ण उक्त कृति में जगद्गुरु हीरविजयसू, रि महाराज की सङ्क्षिप्त जीवनी लिख कर विशेषार्थीओं को ' हीर सौभाग्यम्' देखने की सूचना दी है । अतः ग्रन्थरचना का प्रारंभ वि. सं. १६४८ से पूर्व अनुमित किया जा सकता है ।
चरित्रनायक हीरविजयसूरि महाराज का स्वर्गगमन वि. सं. १६५२ में हुआ। । स्वर्गगंभन तक की पूर्ण जीवनी वर्णित होने के कारण ग्रन्थपूर्णता के समय का अनुमान लगाया गया ।
हीरविजयसूरि महाराज
आपका जन्म वि. सं. १५८३, मृगशीर्ष शुक्ला नवमी को पालनपुर (गुजरात) में हुआ । पिताजीका नाम : कुराशाह । माताजी का नाम : नाथीबाई | आपका नाम था हीरजी ।
विजयदानसूरि महाराज के करकमलों से आपकी दीक्षा वि. सं. १५९६, कार्तिक कृष्णा दूज को हुई । दीक्षा- नाम : मुनि हरर्ष ।
स्व-पर शास्त्रों के मर्मगामी अभ्यास के बाद नाडलाई
पंडितपद से, उसी गाँव में एवं वि. १६१० में विभूषित किया गया ।
( राजस्थान ) में वि. सं. वि. सं. १६०८ में सिरोही ( राजस्थान )
१६०७ में उन्हें उपाध्याय पद से में आचार्यपद से