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अध्याय २
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाखण्डप्रशंसा, परपाखण्डसंस्तव ।'
इस सूत्र में सर्वप्रथम वर्तमान में प्रचलित पांच अतिचारों का एक साथ उल्लेख मिलता है । इस अंग के पूर्व के छः अंगों में प्रथम तीन नाम तो ये ही प्राप्त होते हैं किंतु पश्चात् के दो नामों के स्थान पर भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न दृष्टिगत होते हैं। किन्तु वहाँ "ये सम्यक्त्व के अतिचार हैं', यहाँ जो उल्लेख किया है वैसा नहीं किया गया। यहाँ इस अंग में स्पष्टतया "सम्यक्त्व के पांच अतिचार ये हैं" ऐसा उल्लेख मिलता है।
प्रश्नव्याकरणांग
विद्यमान प्रश्नव्याकरण अंग में और स्थानांग, समवायांग में. वर्णित प्रश्नव्याकरण के विषय में अंतर है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के के उपमा आदि दस अध्ययनों का उल्लेख हैं। जबकि समवायांग में बताया गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न और १०८ प्रश्नाप्रश्न है तथा इसके ४५ अध्ययन हैं। नंदी सूत्र में भी यही वर्णन उपलब्ध होता है। विद्यमान प्रश्नव्याकरण में न तो. उपर्युक्त विषय ही है और न ४५ अध्ययन। इस में हिंसादिक पांच आस्रव और अहिंसादिक पांच संवर का दस अध्ययन में निरूपण है। इसका अर्थ यह हुआ कि विद्यमान प्रश्न व्याकरण बाद में होने वाले. गीतार्थ मुनि की रचना है।
तृतीय आस्रव द्वार में बताया है अदत्तादान ग्रहण करने वाले "धम्मसन्न-सम्मत पन्भदा" अर्थात् धर्मबुद्धि और सम्यक्त्व से भ्रष्ट १. एवं खलु आणंदाइ समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं वयासी-एवं खलु आणंदा ! समणोवासएणं अभिगय जीवाजीवेणं जाव अणइक्कम णिज्जेणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्या न समारियव्वा । तं जहा-संका, कंखा, विइ गिच्छा, परपासंड पसंसा,
परपासंडसंथवे । उपासकदशांग, प्रथम अध्य०, पृ० ४६-४७. ।। २.जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ० २४८ ।।