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________________ अध्याय २ ७५ निग्रन्थी हैं वे प्रब्रजित होकर पंच महाव्रतों में, छः जीव निकायों में तथा निर्प्रन्थ प्रवचन में निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सक सम्पन्न होकर विचरते हैं वे इस भव में अनेक श्रमण और श्रमणियों द्वारा पूजनीय होते हैं और इस अनादि अनंत रूप चतुर्गति वाले संसार के पार पहुँच जाते हैं ।' इस प्रकार इस अंग में सम्यक्त्व के अंग व अतिचारों का वर्णन किंचित मात्र प्राप्त होता है । उपासक दशांग > विद्यमान अंग सूत्रों व अन्य कई आगम ग्रन्थों में प्रधानतः श्रमण- श्रमणियों के आचारादि का निरूपण ही दिखाई देता है । उपा सकदशांग ही एक ऐसा सूत्र है जिस में गृहस्थ धर्म के संबंध में विशेष प्रकाश डाला गया है । इस से श्रावक अर्थात् श्रमणोपासकों के मूल : आचार अनुष्ठान का पता चलता है । श्रमण भगवान् महावीर के दश श्रावकों में प्रथम आनन्द श्रावक को धर्मोपदेश देते हैं । तदन्तर्गत सम्यक्त्व के पांच अतिचारों का उल्लेख हैं हे आनन्द ! जीवाजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले, धर्म से विचलित न होने वाले को सम्यक्त्व के पाँच अतिचार जान लेने चाहिये, पर आचरण नहीं करना चाहिये । वे इस प्रकार है— १. " एवामेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वइए समाणे पंचसु महत्वसु छसु जीवनिकापसु निग्गंथे पावयणे 'निस्संकिए, निक्कखिए, निव्वितिमिच्छे सेणं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं जाव वीर वीइस्सइ ।” ज्ञाता - धर्म० प्र० भाग, अध्य० तीन, पृ० ७१६, अनु० पं० मुनि कन्हैयालालजी प्रका० अ० भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट ।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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