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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप के दृष्टांत से श्रमणों व श्रमणोपासकों को बोध दिया गया है। इस प्रकार उल्लेख करते हुए कहा है
" सागरदत्तपुत्र एक बार जहाँ उस मयूरी के अंडे थे उस के - पास गया, जाकर उसके विषय में शंकित कांक्षित हो गया । उसने उस अंडे को हिलाया टकराया जिस से वह अंडा शक्तिहीन अर्थात् निःसार धन गया । उसको निष्प्राण देखकर उसे दुःख हुआ यावत् आर्तध्यान में पड़ गया। इसी प्रकार सागरदत्तपुत्र की तरह हे आयुष्यमान् श्रमणो ! जो हमारे निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थी हैं वे आचार्य उपाध्याय के पास प्रव्रजित होते हुए पंच-महाव्रतों में छह जीवनिकायों में एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न हैं वे इस भव में अनेक. अंमणों, . श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निंदनीय, खिसणीय, गर्हणीय तथा अभ्युत्थान आदि से परिभवनीय होते हैं । परभव में अनेक दंडों को प्राप्त करते हैं तथा अनादिकाल तक इस चतुर्गतिकरूप संसार में परिभ्रमण करते हैं।'
जिनदत्तसार्थवाह पुत्र मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक था, वह उसे हिलाता डुलाता न था तो उस में से मयूर शावक की उसे प्राप्ति हुई । जिनदत्त पुत्र की तरह जो हमारे श्रमण निर्ग्रन्थ अथवा १. सागरदत्त पुत्त सत्थवाहदारप अन्नया कयाई जेणेध से मयूरी अंडए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं मऊरी अंडयं पोच उमेव पासई पासित्ता अहोणं मम एस किलावणए मऊरी पोयए ण जाए तिकटटु ओहयमण जाव झियायइ। एवामेव समणाउसो । जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियं उबज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंच महव्वएसु छन्जी. वनिकाएसु निग्गथे पावयणे संकिते कंखिते जाव कलुससमावण्णे से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूण सावगाणं बहूणं साविगाणं हीलणिज्जे निंदणिज्जे सिंखणिज्जे गरहणिज्जे- परिभवणिज्जे परलोएवियणं आगच्छइ हूणं दंडणाणिय जाव अणुपरियदृइ ।"
ज्ञा० अ० ३, पृ० ७१६ ॥