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अध्याय ३ .
- इन चौदह जीवस्थानों को गुणस्थान भी कहते हैं। इन गुणस्थानों से ज्ञात होता है कि जो अविरत है उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है।
भवसिद्धिक जीवों में कितनेक जीवों के मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय, सोलह कषाय नव नो कषाय ।' इकत्तीस जो सिद्धों के गुण है, उन में दर्शनमोहनीय का क्षय आवश्यक है।'
इस प्रकार चतुर्थांग समवाय में सम्यक्त्व विषयक विचार है ।
(७) ज्ञाताधर्मकथांग-उपासकदशांग-प्रश्नव्याकरण ज्ञाताधर्मकथांग
षष्ठांग ज्ञाताधर्मकथा में सम्यक्त्व विषयक विचार-विकास जानने से पूर्व हम उसका लेखनकाल कब है ? यह ज्ञात करेंगे । ज्ञाताधर्म..कथांग में सुधर्मास्वामि के वर्णन के बाद जम्बूस्वामि का वर्णन आता है वहाँ उनको 'घोरतव्वसी' आदि विशेषणों से अलंकृत किया है। किन्तु साथ ही उस में क्रियापद का प्रयोग तृतीय-पुरुष में किया है। इस से प्रतीत होता है कि यह उपोद्घात भी. सुधर्मा व जम्बूस्वामि के अतिरिक्त किसी अन्य महानुभाव ने बनाया है।
इस अंग में कथाओं के माध्यम से बोध दिया गया है। जिनदत्तसार्थवाहपुत्र और सागरदत्तसार्थवाहपुत्र द्वारा मयूरी के अंडों १. भवसिद्धियाणं जीवाणं अत्थेगइयाणं मोहणिजस्स कम्मस्स अट्ठावीस . कम्मंसा पण्णत्ता, तं जहा-समत्तवेअणिज, मिच्छत्तवेयणिजं, सम्मामिच्छत्त वेयणिज, सोलसकसाया, नवनोकसाया ।" अष्टाविंशति
समवाये, पृ० ३१५ ॥ २. एकतीस सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तं जहा...खीणे खीणे "दसणमोह
णिज्जे"। एकत्रिंशत् समवाये, पृ० ३२७ ।। ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ।