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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप चतुर्थांग समवाय ठाणांग की भाँति समवायांग का समय निश्चित निर्धारित नहीं किया जा सकता। किंतु इस में कल्प एवं प्रज्ञापना का उल्लेख होने से सामान्यतया वीर निर्वाण के ४०० वर्ष तक समवायांग का विद्यमान रूप प्राप्त हो गया होगा, ऐसा माना जा सकता है। समवायांग में सम्यक्त्वविषयक सामग्री अत्यल्प प्राप्त है। इस का कारण यह भी हो सकता है कि 'ठाणं' सूत्र में एक से लेकर दस तक के स्थानों का विवरण मिलता है और समवायांग में एक से लेकर करोड़, असंख्य तक का । जिन-जिन विषयों पर 'ठाणं' सूत्र में विचार दर्शाया है संभवतः पुनरावृत्ति न हो इस अपेक्षा से इस सूत्र में उन-उन स्थानों की विचारणा न की हो। सूत्रकार ने तीन प्रकार की विराधना कही है-१. ज्ञानविराधना, २. दर्शनविराधना, ३. चारित्रविराधना।' इन विराधनाओं को लक्ष्य में रखकर उनको दूर करने का प्रयास किया जाय तो कर्मों की विशुद्धि होती है। आवश्यकसूत्र में भी इसका उल्लेख है। कर्मों की विशुद्धि की गवेषणा की अपेक्षा को लेकर चौदह जीव स्थान कहे गये हैं वे इस प्रकार है १. मिथ्यादृिष्ट, २. सास्वादन, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. विरताविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. निवृत्तिबादर (अपूर्वकरण), ९. अनिवृत्तिबादर, १०. सूक्ष्मसंपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली, १४. अयोगीकेवलि ।' १. तओ विराहणा पण्णत्ता, त जहा-नाण विराहणा दंसण विराहणा, चरित विराहणा! तृतीय समवाये, पृ०५५, नि० कन्हैयालालजी०म० २. आवश्यकसूत्र, चतुर्थ अध्ययन ।। ३. “कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवटाणा पण्णत्ता, तं जहामिच्छदिट्ठा, सासायणसम्म दिट्ठा, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरय समदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्त संजए, अप्पमत्त संजए, नियट्टि बायरे, अनियट्टिबायरे, सुहमसंपराए, उवसामए वा खवए वा, उवसत मोहे, खीणमोहे सजोगीकेवली, अजोगी केवली-चतुर्दश समवाये, पृ० १७६ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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