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________________ अध्याय २ • यहाँ सूत्रकार का आशय यह दृष्टिगत होता है कि जो निम्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा रखता है तथा शंकादि दोषों का त्याग करता है वह आत्मविजय को प्राप्त कर सकता है और जो शंकायुक्त तथा अश्रद्धावान् होता है वह परीषहों से ही हार जाता है तो क्या आगे बढ़ सकेगा ? एक बात पर और लक्ष्य रखना है कि यहाँ श्रमण अर्थात् मुनित्व एवं श्रद्धा का एकीकरण न कर भिन्नत्व दिखाया है साथ ही श्रद्धा आध्यात्मिक विकास के लिये तो परमावश्यक है, इस की स्पष्ट झलक मिलती है। - शासन संचालक जो गण को धारण करने वाले हैं, उनके ६ स्थानों में प्रथम है श्रद्धावान् अर्थात् श्रद्धावान् अणगार ही गण धारण करने में समर्थ है।' . 'एकल-विहार प्रतिमा' को श्रद्धावान् पुरुष धारण करता है उस का भी उल्लेख है। . ..इस प्रकार तृतीयांग ठाण में सम्यक्त्वविषयक विकास पाया जाता ' है । सम्यक्त्व के भेद सर्वप्रथम इसी अंग में उपलब्ध होते हैं। इस से पूर्व हमें दृष्टिगोचर नहीं होते। चौबीस दण्डकों में कौन-कौन सा जीव सम्यक्त्व का अधिकारी होता है इस का इस सूत्र में उल्लेख किया है। १. निग्गथे पावयणे, २. पंचहि-महव्याहिं, ३. छहिं जीवणिकाएहिं निस्संकिते, निखिते निवितिगिच्छिते णो भेद समावण्णे णो .. कलुससमावण्णे १. निग्गंथं पावयण, २. पंच महव्वताई, ३. छजीव. णिकाए सद्दहति पत्तियति रोएति से परिस्महे अभिजंजिय अभि. - जुजिय अभिभवंति णो तं परिस्सहा अभिजुजिय-अभिजुजिय अभि- भवंति ।"-तइयं ठाणं, चउत्थो उद्दे०, सू० ५२४, पृ० २५६ ॥ १. छहि ठाणेहि संपण्णे अणगारे अरिहति गणं धारित्तए, तं जहा- सड्ढी पुरिसजाते xxx । छठं ठाणं सू० १, पृ० ६५५ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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