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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप आगे सूत्रकार बता रहे हैं कि अश्रद्धावान् चाहे वह श्रमण है किन्तु वह आत्मविजय नहीं कर सकता-अश्रद्धावान् निम्रन्थ के लिए तीन स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अनिःश्रेयस और आनुगामिता के हेतु हैं वह श्रमण मुण्डित तथा आगार से अणगार धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन (१) पंच महाव्रतों, (२) छः जीवनिकाय, (३) में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सक, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन आदि तीनों में श्रद्धा, प्रतीति, रुचि नहीं करता । उसे परीषह जूझ जूझ कर अभिभूत कर देते हैं, वह परीषहों से जूझ जूझ कर उन्हें अभिभूत नहीं कर पाता।' ठीक इसके विपरीत जो श्रद्धावान् है उसके लिए कहा है___श्रमण निम्रन्थ के लिये तीन स्थान हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और अनानुगामिता के हेतु होते हैं- , __वह मुण्डित होकर आगार से अणगार धर्म में प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में पंचमहाव्रतों में, छः जीव-निकायों में निःशंकित निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सिक अभेद समापन्न और अकलुष समापन्न होकर निम्रन्थ प्रवचन में, पंचमहाव्रतों में, छः जीवनिकायों में श्रद्धा प्रतीति रुचि करता है । वह परीषहों से जूझ-जूझ कर उन्हें अभिभूत करता है, उसे परीषह जूझ-जूझ कर अभिभूत नहीं कर पाते ।२ १. तओ ठाणा अव्यवसितस्स अहिताए असुभाए अखमाए अणिस्सेसाए अणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए १. निग्गथे पावयणे, २. पंचहि महत्वएहि, ३. छहिं जीवणिकाएहिं सकिते कंखिते वितिगिच्छे भेदसमावन्ने कलुस. समावण्णे १. निग्गथं पावयणे, २. पंच महव्वताई, ३. छजीवणिकाए णो सदह ति, णो पत्तियति णो रोएति, तं परिस्सहा अभिमुंजिय अभिमुंजिय अभिभवंति णो से परिस्त हे अभिजुजिय अभिजंजिय अभिभवइ" । तइयं ठाणं चउत्थो । तइयं ठाणं चउत्थो उद्दे०, सू० ५२३, पृ० २५५ ॥ २. "तओ ठाणा ववसियस्स हिताए, सुभाए, खमाए णिस्सेसाए आणुगामि. यताए भवंति, तं जहा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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