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________________ अध्याय २ और कलुष समापन्न होकर श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति और रुचि नहीं करता है । इस प्रकार निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करता हुआ मानसिक उतार-चढाव और विनिघात ( धर्मभ्रंशता ) को प्राप्त होता है । ' सूत्रकार ने स्पष्ट कथन किया है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धा करने वाला धर्मशता को प्राप्त करता है । यहाँ एक बात पर विशेष ध्यान देना है कि आचारांग सूत्र में सम्यक्त्व और मुनित्व का एकीकरण किया था, किंतु यहाँ सूत्रकार यह बता रहे हैं कि मुनि बनने के पश्चात् भी अश्रद्धा की तो पतन हो जायगा । अब आगे सुख - शय्या पद का विवरण करते हैं - वह व्यक्ति जो मुण्डित तथा आगार से अणगार धर्म में प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रबचन में निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सिक, अभेदसमापन्न तथा अकलुष समापन होकर प्रवचन में श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है । . इस प्रकार श्रद्धा प्रतीति और रुचि करता हुआ आभ्युपगमिकी और औमिका को सहन करता हुआ धर्म में स्थिर होता है । " हाँ. स्पष्ट होता है कि श्रद्धावान् ही धर्म में स्थित हो पाता है । १. " तत्थ खलु इमा पढमा दुहसेज्जा से णं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वre निग्गंथे पावयणे संकिते कंखिते वितगिच्छिते भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे निग्गथं पावयणं णो सद्द्दहति णो पंत्तियति णो रोपड़, निग्गथं पावयणं असदुद्दहमाणे अपतियमाणे अरोपमाणे मणं उच्चावयं नियच्छति, विणिघातमावज्जति पढमा दुहसेज्जा " । - चउत्थं ठाणं, तइओ उदे. सु. ४५० पृ० ४१९ ॥ २. तत्थ खलु इमा पढमा सुहसेज्जा - " से णं मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पease निग्गंथे पावयणे निस्संकिते णिक्कखिते वि तिमिच्छिए णो भेदसमावण्णे णो कलुससमावणे निग्गथं पावयणं सदहइ पत्तियह रोपति निग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छति, णां विणिघातमावज्जति । " - चउत्थं ठाणं, तइओ उददे०, सृ० ४५१, पृ० ४२१ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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