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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
एकेन्द्रिय जीव मिध्यादृष्टि है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि है । पंचेन्द्रिय तीनों दृष्टि से युक्त होते हैं ।' भगवतीसूत्र में इन क्रियाओं का उल्लेख जीवों में स्थित दृष्टियों के वर्गीकरण के साथ ही कर दिया गया है ।
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अब यहाँ ग्रन्थकार पांच संवर द्वार और पांच ही आस्रक द्वारों का कथन कर रहे है । कर्मो का आना आस्रव और आते 1 हुए का रुक जाना संवर कहलाता है । वे आस्रव द्वार पांच है - मिथ्यास्व, अविरति, प्रमाद, कषाय योग । संवर द्वार भी पांच है - सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ।
इससे तात्पर्य यह निकलता है कि सम्यक्त्व भी संवर का एक कारण है । सम्यक्त्व के पश्चात् की अवस्था विरति आदि है ।
जिसके द्वारा व्यक्ति धर्म में स्थिर होता है उसे यहाँ ग्रन्थकार ने सुख - शय्यापद कहा है और धार्मिक भ्रंशता जिससे प्राप्त करता है उसे दुःख - शय्या पद से सम्बोधित किया है । वैसे तो दुःख शय्या चार प्रकार की है, उसमें प्रथम है निर्ग्रन्थ प्रवचन !
वह व्यक्ति जो मुण्डित तथा आगार से अणगार धर्म में प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सिक, भेद समपन्न, १. एगा मिच्छदिट्ठियाणं पुढविक्काइयाणं वग्गणा एवं जाव वणस्सहकाया । एगा सम्म दिट्ठियाणं मिच्छदिट्टियांणं बेदियाणं वग्गणा । पगा सम्म दिट्टियाणं मिच्छदिट्ठियाण तेइंदियाणं चउरिं दियाणं वग्गणा । सेसा जहा णेरइया जाव पगा सम्मामिच्छदिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, पढमं ठाणं सू० १७७ से १८५, पृ०११-१२ ॥ एवं प्रज्ञापनासूत्र एगुणवीसइयं पदं सूत्र १३९९ से १४०२, पृ० ३१८||
२ पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा - मिच्छत्तं, अविरती पमादो कसाया जोगा | पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा - संम्मत्तं, विरती अपमादो अकसाइतं अजोगित्तं पंचम ठाणं, बीओ उद्दे० सू० १०९११०, पृ. ५८० ॥
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