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________________ अध्याय.२ ग्रन्थ के अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि समय-समय पर इसमें कुछ न कुछ जोड़ा गया है। उसका निश्चित प्रमाण इस ग्रन्थ में आए सात निह्नवों का उल्लेख है। जबकि सातवाँ निह्नव भगवान् महावीर के निर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् हुआ है। अतः कहा जा सकता है कि उक्त वर्ष तक इसमें पूर्वाचार्यों द्वारा कुछ न कुछ जोड़ा तोड़ा गया है। आठवें बोटिक निदव का वर्णन इसमें नहीं है, जिसका समय वी० नि० पश्चात् ६०९ है। वलभी वाचना में भी इसमें परिवर्तन नहीं किया। अतः वी० नि० संवत् ५८४ के समय इसका अन्तिम संकलन हुआ है यह निश्चित् हुआ । इससे पूर्व के अंगों में सम्यक्त्व व मुनिजीवन के एकीकरण तथा उसके पश्चात् श्रद्धावान् श्रावक भी सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है तथा सम्यग्ज्ञान से सम्यग्दर्शन पूर्ववर्ती है, ये तथ्य हमारे सामने आए । अब इस सूत्र ठाणांग में सम्यक्त्व का वर्गीकरण किया गया है । इसमें इसके भेद. प्रभेद के साथ इसका अधिकारी कौन हो सकता है ? चारों गतियों में, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किन-किन जीवों को यह प्राप्त हो सकता है ? इसका उल्लेख किया गया है । यहाँ 'सम्यक्त्व' का विचार 'दर्शन' (सम्यग्दर्शन) पद से किया है । .. दर्शन पद एक प्रकार का, दो प्रकार का, तीन प्रकार का, सात प्रकार का व आठ प्रकार का बताया गया है। ... दर्शन एक प्रकार का है।' दर्शन दो प्रकार का प्ररूपित किया है-सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन ।। १. पगे दंसंणे-ठाणांग, पढम. ठाणं, सूत्र ४६, पृ० ७ ॥ २. दुविहे ईसणे पण्णत्ते, तं जहा- सम्मइंसणे चेव मिच्छादंसणे चेव । . वही, बीअं ठाणं, पढम उद्दे०, सूत्र ७९, पृ० ४८ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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