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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप लायोपशमिक भाव भी दो प्रकार का है-१. क्षायोपशम रूप क्षायोपशमिक, २. क्षायोपशमनिष्पन्न क्षायोपशमिक । केवलज्ञान के प्रतिबन्धक घातिकर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का जो क्षयोपशम हैं, वह क्षायोपशमिक है।'
क्षायोपशमनिष्पन्न क्षायोपशमिक भाव अनेक प्रकार का है-मति अज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति अज्ञान, श्रुत अज्ञानावरण से श्रुतअज्ञान विभंग-ज्ञानावरण से विभंग ज्ञान ।
देववाचक गणि ने नंदी सूत्र में मिथ्यादृष्टि को होने वाले मति अज्ञान और श्रुताज्ञान का विचार किया है, किंतु विभंग ज्ञान की चर्चा नहीं की। आर्य रक्षित सूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र में विभंगज्ञानं का. विचार किया है। विभंगज्ञानावरण के क्षयोपशम से विभंगज्ञान होता है। इस प्रकार अनुयोगद्वार सूत्र में छः नामों के माध्यम से सम्यक्त्व के भेदों का स्पर्श किया है। ६ स्थानांग-समवायांग तृतीयांग ठाणं स्थानांग
___ अब हम तृतीयांग ठाणं में सम्यक्त्व विषयक अवलोकन करेंगे किन्तु उस से पूर्व हम यह जान लें कि स्थानांग का समय क्या है ? इस की रचना कब हुई ?
वास्तव में इस ग्रंथ की रचना ऐसी है कि उस में समय समय पर कुछ जोड़ा जा सकता है, कारण यह है कि इस में पूर्वापर विषय का संबंध नहीं है। मात्र संख्या का ही इस में संबंध है। १. खओवसमिए दुविहे पण्णते, तं जहा-खओवसम-निष्फन्ने य । खओ
घसमे चउण्हं चाइकम्माणं खओवसमेणं तं जहा नाणावरणिजस्स, दंसणावरणिजस्स, मोहणिज्जस्स, अंतराइस्स-अनु० गा० २४५-४६, पृ० ११०-११ ॥ २. अनु० गा० २४७ ॥