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________________ ६२ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप संघ को मेरुपर्वत की उपमा में कहा-" संघ का आधार उत्तम सम्यग्दर्शन है ।" इस प्रकार विभिन्न उपमाओं में सम्यक्त्व को ग्रन्थकार ने स्थान दिया है। सर्वप्रथम नंदीसूत्र में ही यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि ज्ञान तभी सम्यक् हो सकता है जबकि सम्यग्दर्शन हो चुका हो। अनुयोगद्वार सूत्र आर्यरक्षित सूरि की यह रचना 'अनुयोगद्वार सूत्र' प्रवाद के आधार पर मानी जाती है। इस का रचनाकाल इस्वी सन् द्वितीय शती मानी जा सकती है क्योंकि इसमें तरंगवती का उल्लेख है, जिस का समय प्रथम शती है। इस सूत्र में छः प्रकार के नामों का उल्लेख है, यथा-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिमाणिक और सन्निपातिक । ___जीव में उदय से जो औदयिक भाव निष्पन्न होते हैं, वे अनेक प्रकार के हैं-मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और मिश्रदृष्टि ।' . यहाँ सूत्रकार यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जीवों के कर्मों के उदय से ही मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि आदि भाव उत्पन्न होते हैं। औपशमिक भाव दो प्रकार का है-१. उपशम, २. उपशम निष्पन्न । मोहनीय कर्म का जो उपशम है वही उपशम है । उपशम निष्पन्न औपशमिक भाव अनेक प्रकार का है, जैसे-दर्शन मोहनीय का उपशांत होना, मोहनीय कर्म का उपशांत होना, औपशमिकी सम्यक्त्वलब्धि आदि उपशमनिष्पन्न १. “सम्मदंसण वर-वइर-दढ-रूढ-गाढावगाढपेढस्स" -गाथा १२ ॥ २. प्रस्तावना, नदीसुत्तं अणुयोगद्दाराई च, पृ० ५१ ॥ ३. से किं तं छ नामे ? छविहे पण्णत्ते । तंजहा- उदइए, उयसमिए; खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, सन्निवातिए । जीवोदय निफण्णे अणेगविहे पण्णत्ते-मिच्छादिट्ठी सम्मदिट्ठी में सदिट्ठी अनु० गा० २३३-२३८ पृ० १०८ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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