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अध्याय २
के बिना चारित्र गुण प्रकट नहीं होते, चारित्र के गुणों के बिना कर्मों से मुक्ति नहीं होती और कर्म-मुक्ति के बिना निर्वाण नहीं हो सकता।' ... ग्रन्थकार ने आगे यहाँ तक कहा है कि बुद्धिमान्अप्रमादी संयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य को ही मनःपर्यव ज्ञान हो सकता है। . इससे तात्पर्य यह निकलता है कि मिथ्यादृष्टि को मनःपर्यव ज्ञान नहीं होता है।
. इस प्रकार इन सब तथ्यों से यही पुष्ट होता है कि सम्यग्ज्ञान से पूर्व सम्यक्त्व अनिवार्यतः होना चाहिये । एक बात और ध्यान देने योग्य है कि इस सूत्र में ग्रन्थकार ने मति अज्ञान तथा श्रुत अज्ञान की चर्चा की है किंतु विभंग ज्ञान की चर्चा दृष्टिगत नहीं होती । . नंदीसूत्र के प्रारम्भ में देववाचकजी ने 'संघ' की स्तुति करते हुए संघ को विभिन्न उपमाओं से उपमित किया है। उन उपमाओं में 'सम्यक्त्व' को भी ग्रहण किया है। संघ को नगर की उपमा में कहा_ “दसण विसुद्धरत्यागा" अर्थात् विशुद्ध (सम्यग्) दर्शन ही उस नगर की वीथियाँ अर्थात् मार्ग है ।”
संघ को चक्र की उपमा में कहा-" सम्यक्त्व उस संघ चक्र का : घेरा या परिधि है ।"४
संघ को चन्द्र की उपमा में कहा-" निर्मल सम्यक्त्व रूप स्वच्छ • चांदनी वाले हे संघ चन्द्र ! सर्वकाल अतिशयवान् हो ।”५. १. नत्थि चरितं सम्मत विहणं, दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्त चरित्ताई जुगवं पुष्वं व सम्मत्तं । नादसिणस्स नाणं, नाणेण विणा न हुति चरण गुणा । अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।
-उत्तरा० अ० २८, गाथा २९ ३० ॥ २. देखो-नदीसूत्र, पृ० १०६ १०७ ।। ३. नंदी, गाथा ४ ॥ ४. नंदी, गाथा ५, संजम-तव-तुंबार यस्स, नमो सम्मत्तपारियल्लस्स । ५. "जयसंघचन्द ! निम्मल-सम्मत्तविसुद्ध जोहागा।" गाथा ९ ॥