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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप . से प्रेरित होकर स्वपक्षमिथ्यादृष्टित्व को छोड़ देते हैं ।' तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव में सम्यक्त्व के प्रभाव से मिथ्याश्रुत को सम्यक्श्रुत के रूप में परिणत करने की अपूर्व शक्ति प्राप्त हो जाती है। जो श्रुत मिथ्यात्व के पोषक होते हैं वे सम्यक्त्व के पोषक बन जाते हैं। इस विषय को वृत्तिकार ने और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि-" एतानि भारतादीनि शास्त्राणि मिथ्यादृष्टेमिथ्यात्व परिगृहीतानि.. भवन्ति, ततो विपरीताभिनिवेशवृद्धिहेतुत्वान्मिथ्याश्रुतम् , एतान्येव च । सम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्व परिगृहीतानि भवन्ति, सम्यक्त्वेन यथावस्थिताऽसारतापरिभावनरूपेण परिगृहीतानि, तस्य सम्यक् श्रुतम् , तद्गताऽसारतादर्शनेन स्थिरतर सम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात् ।” भावार्थ यह है कि ये भारत आदि शास्त्र मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व के कारण होते हैं क्योंकि विपरीत अभिनिवेश की वृद्धि में हेतु होने से मिथ्याश्रृंत है। ये ही भारत आदि शास्त्र सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यक् रूप से ग्रहण किये जाते हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि के लिए लौकिक तथा लोकोत्तरिक सभी ग्रन्थ सम्यक् श्रुत हैं । ठीक इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि के लिए. द्वादशांग गणिपिटक भी मिथ्याश्रुत रूप है विपरीत अभिनिवेश के कारण । इस प्रकार इस सूत्र से स्पष्टतया हमें ज्ञात हो जाता है कि सम्यग्ज्ञान तभी हो सकता है जबकि उससे पूर्व सम्यग्दर्शन हो चुका हो अन्यथा वह ज्ञान नहीं अज्ञान है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी इसे स्पष्ट करते हुए कहा है-सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं हो सकता और दर्शन में उसकी भजना होती है। यदि दोनों एक काल में हो तो उनमें सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्रथम होगी । इसी प्रकार दर्शन (सम्यक्त्व) से रहित को ज्ञान नहीं होता, ज्ञान १. एयाणि चेव सम्मद्दिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं"-वही ॥ २. " अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि सम्मसुयं, कम्हा? सम्मत्तहे उत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिदट्ठिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केह सपक्खदिट्ठीओ चयंति" || वही ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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