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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
श्रुत
और मिध्याश्रुत के अन्तर्गत स्पष्टतया उल्लेख है कि सम्यग्दृष्टि का श्रुत ही सम्यग्ज्ञान है ।
इसका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकर्त्ता कहते हैं
“जो सम्यग्दृष्टि है उसकी मति मतिज्ञान है और जो मिथ्या : दृष्टि है उसकी मति मतिअज्ञान है ।
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अतः सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ही ज्ञानरूप - सम्यग्रूप है । सम्यग्दर्शन. पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान होता है इसकी यहाँ पुष्टि होती है ।
ज्ञान का पहला भेद मतिज्ञान है और दूसरा भेद हैं श्रुतज्ञान । सूत्रकर्त्ता ने ग्रन्थ में उसका भी उल्लेख करते हुए कहा
सम्यग्दृष्टि का श्रुतश्रुतज्ञान है, मिध्यादृष्टि का श्रुत श्रुत- अज्ञान है इससे भी यही पुष्टि होती है कि सम्यग्दृष्टि को ही श्रुतज्ञान होता है | श्रुतज्ञान के भेद से और भी स्पष्ट होता है - श्रुतज्ञान के भेदों में सम्यक् श्रुत और मिध्याश्रुत ये दो भेद है - सम्यक् श्रुत क्या है ?
सम्यक् श्रुत-" उत्पन्न ज्ञान- - दर्शन को धारण करने वाले त्रिलोक द्वारा सन्मानपूर्वक देखे गये, तथा यथावस्थित उत्कीर्तित, भावयुक्त नमस्कृत्य सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्हन्त भगवन्त द्वारा प्रणीत जो यह द्वादशांग रूप गणिपिटक है, जैसे- “ आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद - इस प्रकार यह द्वादशांग गणिपिटक है। चौदह पूर्वधारियों का श्रुत सम्यक् श्रुत होता है । उसके कम अर्थात् दशपूर्वधर से कम के भजना है अर्थात्
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अण्णा
१. “ विसेसिया सम्मदिस्सि मई महणाणं, मिच्छादिट्ठिस्स - मई - नंदीसूत्र, सू० २५, पृ० १६० ॥ २. विसेसियं सुयं - सम्मदिट्ठिस्स सुयं सुगनाणं, मिच्छदिट्ठिस्ल सुयं सुयअन्नाणं || वही ||
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