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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
और लोभ के अत्यंत अल्प हो जाने पर, मार्दव अर्थात् कोमलता आने पर, काम भोगों में अनासक्ति, भद्रता और विनीतता से किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या होने पर एवं तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से ईहा अपोह मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है । '
उस के द्वारा वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात् हजार योजन तक जानता देखता है । वह पाखण्डी, आरम्भी, परिग्रही और संक्लेश को प्राप्त हुए जीवों को जानता है. और विशुद्ध जीवों को भी जानता है । इस के बाद वह विभंग ज्ञानी सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है । उसके बाद श्रमणधर्म पर रुचि करता है । तब उस विभंगाज्ञानी के मिध्यात्व पर्याय क्रमशः क्षीण होते. ' होते और सम्यग्दर्शन की पर्याय क्रमशः बढ़ते बढ़ते वह विभंगाज्ञान सम्यक्त्व युक्त होता है और शीघ्र ही अवधि ज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है । '
यहाँ बताया गया है कि परोपदेश के बिना भी, दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है । एवं मिथ्या१. तस्स णं भंते ! छट्ठछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवो कम्माणं उडढं बाहाओ गिज्झिxx पग उवसंतयाए पगइपयणु कोह- माण- मायां लोभयाए मिउमद्दव संपण्णयाए, अल्लीणयाए, भद्दयाए, विणीययाए, अण्णया कवि सुभेणं अज्झाणेणं, सुभेण परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं २ तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा - पोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पजइ ।
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- वही, श० ९, उद्दे० ३१, पृ० १५९२-९३ ॥ २. से णं तेणं विब्भंगणाणेणं समुप्पण्णेणं जीवे वि याणइ, अजीवे वि याण, पासंडत्थे, सारंभे, सपरिग्गहे, संकिलिस्तमाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ से णं पुण्यामेव सम्मत्तं पडिवज्झइ सम्मत्तं पडिवजित्ता स णधम्मं रोएs xxxतस्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं २ सम्मदंसण- पजवेहिं परिवड्ढमाणेहिं २ से विन्भंगे अण्णा सम्मत परिग्गहिए खिप्पामेव ओहीपरावत्तइ ।" भग० वही ॥