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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप किन्तु पृथ्वीकाय के जीव जो कि एकेन्द्रिय है, वे किस प्रकार वेदन करते हैं ? उन जीवों के ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन नहीं होता कि हम कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते हैं। किन्तु वे उसे वेदते. हैं। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीव एवं पंचेन्द्रिय तिर्यच से यावत् वैमानिक जीवों तक कहना चाहिये ।' इसके पश्चात् श्रमण-निर्ग्रन्थ के लिए पृच्छा है क्या वे भी कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं ? हाँ वेदते है ! किस कारण से ? उन उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर के द्वारा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमण निम्रन्थ भी कांक्षा मोहनीय कर्म वेदते हैं। ___ इस से स्पष्ट होता है कि सभी जीव शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर ही मिथ्यात्व मोहनीय का वेदन करते हैं, श्रमण निग्रन्थ भी इस से अछूते नहीं रहते। अब ग्रन्थकार स्पष्टीकरण कर रहे हैं कि- केवली यावत् केवलिपाक्षिक से सुने बिना भी क्या बोधि प्राप्ति हो सकती है?" १. नेरइया णं भंते ! कंखा मोहणिज्ज कम्म वेइंति ? हंता वेइंति | जहा ओहिआ जीवा तहा नेरइया जाव थणिय कुमारा। पुढविक्काइया कहणं भंते ! कंखामोह णिज्ज कम्मं वेदेति ? गोयमा ! तेसि णं जीवाणं णो एवं । वही पू० १८९ ॥ २. समणा वि निग्गंथा कंखा मोहणिज्ज कम्मं वेएंति ? हता। कहणं भंते ! तेहिं तेहिं कारणेहिं नाणंतरेहि, दसणंतरेहिं चरितंतरेहि, लिंगत्तरेहि, पवयणंतरेहिं, पावयणंतरेहि, कप्पंतरेहिं, मग्गंतरेहि, मयंतरेहि, भंगतरेहिं णयंतरेहि, नियमंतरेहि, पमाणतरेहि, संकिया, कंखिया, वितिगिच्छिया भेयसमावन्ना, कलुससमावन्ना एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोह णिज्जं कम्मं वेइंति"-श०१ उद्दे० ३, पृ०१८९.६९०॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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