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अध्याय २..
. गौतम ! अमुख अमुख कारणों से जीव शंकायुक्त, कांक्षायुक्त विचिकित्सायुक्त भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं।'
यहाँ स्पट होता है कि शंका, कांक्षा, विचिकि-सा भेद-समापन्न और कलुष-समापन्न होकर जीव मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। इस का समर्थन करते हुए कहा है
वही सत्य है, निश्शंक है जो अरिहन्त भगवन् ने प्ररूपित किया है।
पुनः प्रश्नोत्तर द्वारा बताया गया है-जीव कांक्षा मोहनीय कर्म बांधते है ? हाँ ! तो किस प्रकार बांधते हैं ? प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से बांधते हैं। प्रमाद किस से उत्पन्न होता है ? तो कहा योग से ! योग किस से उत्पन्न होता है ? वीर्य से और वीर्य किस से ? शरीर से ! शरीर किस से उत्पन्न होता है ? शरीर जीव
से और जीव उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से • उत्पन्न होता है। . . इस प्रकार नैरयिक से लेकर स्तनित कुमार तक के जीवों के लिए कहा कि वे भी कांक्षा मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। १, जीवाणं भंते कंखामोह णिज्ज कम्म वेदेति ? हंता वेदेति । कहणं • भंते ! जीवा कंखामोह णिज्नं कम्मं वेदेति ? तेहिं तेहिं कारणेहिं
संकिया, कंखिया, वितिगिछिया, भेदसमावन्ना कलुस समावन्ना एवं ..' खलु जीवा कंखा मोहणिजं कम्मं वेदेति ।
__ भग०, वही, पृ० १६९ ॥ २. "तमेव सच्च णीसके जं जिणेहिं पवेइयं” श० १, उद्दे० ३, पृ० १६९ ॥ ३. जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं बंधति ? हंता बंधति । कहणं भंते ? पमादपञ्चया, जोगनिमित्तं च। पमाए किं पवहे ? जोगप्पवहे । जोग किं पवहे ? वीरियप्पवहे । वीरिए किं पवहे ? सरीरप्पवहे । सरीरे किं पवहे ? जीवप्पवहे। एवं सति अस्थि उदाणेइ वा, कम्मेइ पा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरिक्कमेइ वा ।
-वही, श० १, उद्दे० ३, पृ० १७८ ॥