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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप यहाँ यह निश्चित होता है कि दर्शनपूर्वक ही ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) होता है। प्रत्येक आत्मा दर्शनयुक्त होता है, उदाहरण देते हुए उल्लेख किया है
नैरयिक जीवों की आत्मा नियम से दर्शनरूप है और उसका दर्शन भी नियम से आत्मरूप है इस प्रकार यावत् चौवीस दण्डवों में कहना चाहिये ।'
स्पष्ट है कि आत्मा से दर्शन अभिन्न है, चाहे वह दर्शन सम्यक् रूप से हो या मिथ्या रूप से ।
भगवतीसूत्र में मिथ्यात्व मोहनीय ‘कांक्षा मोहनीय' शब्द से . प्रयुक्त हुआ है। सम्भव है उस समय मिथ्यात्व मोहनीय को कांक्षा मोहनीय कहा जाता हो। ‘अभिधान राजेन्द्र' में कांक्षा मोहनीय के लिए कहा गया है-“मोहयतीति मोहनीय कर्म सच्चारित्रभोहनीयमपि भवतीति विशिष्यते कांक्षाऽन्यान्य दर्शन ग्रहः । उपलब्धत्वाच्चाऽस्यशंका. दिपरिग्रहः । ततःकांक्षायामोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः ।" ।
कांक्षा मोहनीय अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय का विचार यहाँ विस्तार पूर्वक हुआ है
क्या जीव कांक्षा मोहनीय कर्म करते हैं ? तो उत्तर दिया-हाँ, करते है। नैरयिकों के लिए पूछते हैं, वे भी कांक्षामोहनीय कर्म करते हैं ? हाँ ! करते हैं ! इसी प्रकार चौबीस दण्डकों के विषय में कहना चाहिये । पुनः प्रश्न करते हैं कि कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन/भोग भी करते हैं ? हां! करते हैं। किस प्रकार करते है ? १. आया रइयाणं नियमा दसणे, दंसणे वि से णियमं आया एवं जाव वेमाणियाणं निरन्तरं दंडओ ॥
वही, ।। पृ० २११६ एवं श० ८, उदे० २, पृ० १३२८ ।। २. जीवा णं भत्ते । कंखामोह णिज्जे कम्मे कडे ? हंता.कडे । नेरइयाणं भंते । कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हंता जाव वेमाणियाणं दंडो भणियन्यो।
श० १, उदे० ३, पृ० १६३ ।।