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अध्याय २.
श्रद्धा में प्रवृत्ति हुई। उत्पत्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । इसलिए 'उप्पण्ण सड्ढे' आदि पद कारण है और 'जाय सड्ढे' आदि पद इनके कार्य हैं।'
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का दृष्टिकोण कैसा होता है उसका कथन है
‘सजगृहीनगरी में रहा हुआ सम्यग्दृष्टि और अमायी भावितात्मा अणगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और अवधिज्ञान लब्धि से वाराणसीनगरी की विकुर्वणा करके वह यथाभाव (यथार्थ रूप) से जानता और देखता है। किन्तु इसके विपरीत जो मायी मिथ्यादृष्टि है वह वीर्यलब्धि, वक्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि युक्त है, वह तथाभाव ( यथार्थ रूप) से नहीं जानता और न देखता है किन्तु अन्यथा भाव से जानता देखता है। उस साधु का विपरीत दर्शन होता है । - दर्शन और ज्ञान आत्मा से भिन्न है, या अभिन्न, उसके लिए कहा है-आत्मा नियम से दर्शन रूप है और दर्शन भी नियम से आत्मरूप है । जिसके ज्ञानात्मा है उसके नियम से दर्शनात्मा है और जिसके दर्शनात्मा है उसके ज्ञानात्मा हो भी और न भी हो ।'
१. भगवतीमत्र, प्रथम भाग, सम्पादक-घेवर चन्दजी बांढिया ॥ • २."अणगारे णं भते। भावियप्पा अमाई सम्म दिट्ठी वीरियलद्धीए • वेउब्वियलद्धीए ओहिणाणलद्वीप रायगिह णयरं समोहए, समोहणित्ता
वाणारसीए णयरीए रूवाइं तहाभाव जाणइ पासइ णो अण्णहाभावं . जाणइ पासइ । माई मिच्छदिट्टी वी रिएलद्वीप वे उब्वियलद्वीए, • विभगणाणलद्वीप वाणारसिं णयरी समोहए समोहणित्ता रायगिहे णयरे रुवाइं णो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ । से से दसणे विवच्चासे भवइ ।"
__ भग०, श. ३, उद्दे० ३, पृ० ६९७ से ७२१ ॥ ३. “आया नियमं दसणे, दंसणे वि णियमं आया"
-श० १२, उद्दे० १०. पृ० २११६ ।। ४. जस्स णाणाया तम्स ईसणाया नियम अस्थि जस्स पुण दंसंणाया - तस्स णाणाया भयणाए -श० १२, उदे० १०, पृ० २१०८ ।।