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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप (५) पंचमांग भगवती (वियाह-पण्णत्ति) पाँचवें अंग का नाम वियाह-पण्णत्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति हैं। अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक विशाल एवं अधिक पूज्य होने के कारण दूसरा नाम भगवती भी प्रसिद्ध है । कहीं-कहीं इसका नाम विवाह-पण्णत्ति
और विबाह-पण्णत्ति भी उपलब्ध होता है, किन्तु वियाहपण्णत्ति ही प्रतिष्ठित हैं । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने भी इसकी व्याख्या प्रथम करके इसे ही विशेष महत्त्व दिया है।
उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति में जो शैली विद्यमान है वह गौतम के प्रश्नों एवं भगवान् महावीर के उत्तरों के रूप में है। यह शैली अति प्राचीन प्रतीत होती है।'
उपुर्यक्त कथन से हमें इसकी. अति-प्राचीनता का बोध अवश्य होता है किन्तु इसका रचनाकाल कब है ? यह ज्ञात नहीं होता।
इन विविध प्रश्नोंत्तरो में सम्यक्त्व विषयक उल्लेख भी है। इस अंग में सम्यक्त्व विषयक चर्चा अति-विस्तारपूर्वक एवं सूक्ष्म रीति से हुई है।
सर्वप्रथम यहाँ गौतम गणधर को श्रद्धापूर्वक संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। वह श्रद्धा, संशय एवं कुतूहल विशेषण लगाकर भी प्रयुक्त हुआ है। यथा-जाय-सड्ढे, संजाय-सड्ढे तथा उप्पण्ण-सड्ढे । जाय-सड्ढे-' जात श्रद्धे' से यहाँ तात्पर्य है कि गौतमस्वामी को श्रद्धा अर्थ तत्त्व जानने की इच्छा पैदा हुई । संजाय सड्ढे-इसमें 'सम' उपसर्ग अधिक लगा है जो कि प्रकर्ष लाता है। इससे अर्थ यह हुआ कि गौतम को प्रकर्षरूप से विशेषरूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई। उप्पण्ण सड्डे-यह पद पूर्व पद के साथ हेतु-हेतुमद-भाव-कार्यकारण भाव बतलाने के लिये दिया है। उन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई इसी कारण १. जैन धर्म का बृहद् इतिहास, पृ. १८९ ।।