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________________ अध्याय २.. ३. व्यापन्नकुदर्शन वर्जना-असत्य दर्शन में जो विश्वास रखते हैं उनकी संगति न करना यह सम्यक्त्व की श्रद्धा है ।' यहाँ विशेष लक्ष्य देने योग्य यह है कि यहाँ सर्वप्रथम प्रकट रूप से 'सम्मत्त सद्दहणा' प्रयुक्त हुआ है । सम्यक्त्व व श्रद्धान का अलगअलग अप्रकट रूप से वर्णन तो मिलता है किंतु एक साथ प्रकट रूप से यहीं प्रयुक्त हुआ है। प्रज्ञापना सूत्र में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के अल्पत्व-बहुत्व का कथन किया है किसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कितने-कितने हैं ? अल्प हैं या बहुत हैं ? समान हैं या विशेष, उसकी प्ररुपणा करते हुए कहा है- ' . सबसे अल्प सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि अनन्तगुणा हैं और मिथ्यादृष्टि भी. अनन्तगुणा हैं । ___इस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र में उत्तराध्ययन सूत्रोक्त दस प्रकार की रुचि एवं दर्शनाचारों का भी वर्णन किया है। यहाँ सर्वप्रथम सम्यक्त्व के साथ श्रद्धान को प्रकट किया। पूर्वागमों में जो अप्रकट रूप से हमारे सामने आया, उसका यहाँ स्पष्ट उल्लेख आया है। यहाँ से ही श्रद्धानं शब्द सम्यक्त्व के अर्थ में रुढ हो जाता है। . दूसरी बात यह प्रकाश में आती है-सम्यक्त्व के लिंग । १. परमत्थसंथवो वा सुदिपरमत्थ सेवणा वा वि । . वावण्ण-कुदंसणवजणा य सम्मत्तसदहणा ॥ -प्रज्ञापना, गाथा १३१, पृ. ४० ॥ संपादक : पुण्यविजय मुनि, बम्बई : श्री महावीर जैन विद्यालय २. एतेसिं णं भत्ते ! जीवाणं सम्मदिट्ठीणं मिच्छदिट्ठीणं सम्मामिच्छादिट्ठीणं च कतरे कतरेहितो अप्पा या बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा सम्वत्थोवा जीवा सम्मामिच्छादिट्ठी सम्मादिटठी अणंतगुणा मिच्छदिठी अणंतगुणा। - -वही तृतीय अल्पत्वबहुत्व पदं सूत्र २५६, द्वार ९, पृ. ९७ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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