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________________ ४८ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अथवा जिनेन्द्र देवों की निन्दा करता है, जिनसे श्रुत व विनय प्राप्त किया उन आचार्यों और उपाध्यायों की निन्दा करता है, उनकी सेवा नहाँ करता, एवं जो अबहश्रत होकर भी अपने को बहुश्रुत प्रख्यात करता है, तपस्वी न होकर अपने आपको तपस्वी प्रख्यात करता है, अथवा छल करने में निपुण होता है, हिंसा युक्त कथा का उपयोग बार-बार करता है, अधार्मिक वशीकरण योगों का प्रयोग करता है, जो व्यक्ति मनुष्य अथवा देव संबंधी काम भोगों की अतृप्ति से अभिलाषा करता है, वह महामोहनीयकर्म का उपार्जन करता है ।' इस प्रकार इस सूत्र में सम्बक व के अवरोधक तत्त्व मोहुनीय कर्म का विवेचन विस्तृत रूप से किया गया है । प्रज्ञापना सूत्र , .. पन्नवणा अथवा प्रज्ञापना जैन आगमों का चौथा उपांग है । जैसे अंगों में भगवती सबसे बड़ा है वैसे ही उपांगों में प्रज्ञापना सबसे बड़ा है। इसके कर्ता वाचकवंशीय पूर्वधारी आर्य श्यामाचार्य हैं जो कि गणधर सुधर्मास्वामी की तेईसवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे, एवं वीर निर्वाण के ३७६ वर्ष बाद मौजूद थे। यह आगम समवायांग सूत्र का उपांग माना जाता है यद्यपि दोनों की विषय-वस्तु में समानता नहीं हैं। इस सूत्र में सम्यक्त्व की पहचान किन गुणों अथवा लिंगों से होती है उसका उल्लेख है१. परमार्थ-संस्तव-परमार्थ तत्त्व का बार-बार गुणगान करना, २. सुदृष्ट परमार्थ सेवना अर्थात् जिन्होंने परमार्थ को अच्छी तरह से जाना है, ऐसे तत्त्वज्ञ पुरुषों की शुश्रूषा करना, १. वही, गाथा ८ से ३० तक. पृ ३२९-३५४ ॥ २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-, पृ. ८३ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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