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________________ अध्याय २ मोहनीय कर्म के ३० स्थानों का वर्णन किया है जो कि सम्यक्त्व का अवरोधक है। इस सूत्र में बताया गया है कि मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर अन्य कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती-जैसे मूल सूख जाने पर वृक्ष को खूब पानी पिलाया जाय तो भी उसमें पल्लव और अंकुरादि नहीं होते हैं वैसे ही मोहनीयकर्म के क्षय होने पर शेष कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती है।' यहाँ निश्चित रूप से कहा गया है कि मोहनीयकर्म के कारण जीव अन्य कर्मों का भी बंधन करता है। आगे ग्रन्थकार बता रहे हैं कि किन कारणों से जीव मोहनीयकर्म का बन्धन करता है । जो व्यक्ति त्रस प्राणियों को मारता है यावत् पानी में डुबोकर, डराकर, अग्नि जलाकर, हाथादि से, प्रहार या डण्डे से मारता है वह महामोहनीयकर्म का बन्ध करता है ।२ . इसी प्रकार जो अपने दोषों को छिपाता है, माया को माया से आच्छादन करता है, झूठ बोलता है तथा सूत्रार्थ का गोपन करता है, निर्दोष पर दोषारोपण करता है, सत्य व असत्य रूप मिश्र वचन बोलता है, कलह करता है, तिरस्कार करता है, अब्रह्म का सेवन करके भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहता है, विषय सुखों में लिप्त . रहता है, धन का लोभी होता है, उपकारी के लाभ में विघ्न उपस्थित करता है, अथवा पालनकर्ता, सेनापति, या धर्माचार्य की हिंसा करता है, अथवा देश के व्यापारियों व नेता व महायशस्वी श्रेष्ठी की हिंसा करता है अथवा दीक्षार्थी व दीक्षित व्यक्ति को धर्म से भ्रष्ट करता है . १. जहा दड्ढाणं बीयाणं न जायंति पुण अंकुरा । कम्मबीएसु दडूढेसु न जायेति भवांकुरा ।। -दशाश्रुतस्कन्ध, अध्ययन , गाथा १५, पृ १६८ ॥ २ दशाश्रुतस्कन्ध, नवमी दशा, गाथा १ से ७ तक पृ. ३२२-३२८
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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