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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
वचन क्रिया के माध्यम से संयम में स्थिर करने का नाम है। स्थिरीकरण |
७. वात्सल्य - अर्थात् साधर्मिक का वात्सल्य करना । आहार भैषज, सेवा, वैयावृत्त आदि के द्वारा अतिथि साधु की विशेष परिचर्या करना वात्सल्य है । '
शाचार्य, ग्लान, बाल, तपस्वी आदि की वात्सत्य करना ।
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८. प्रभावना - - शब्दों को अवधारण कर जो प्रवचन की प्रभावना करते है वह प्रभावना है ।
इस प्रकार दर्शन के आठ आचारों का वर्णन इस सूत्र में किया गया है ।
दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रम्
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दशाश्रुतस्कन्ध छेद सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । सम्भवतः छेद नामक प्रायश्चित को दृष्टि में रखते हुए इन सूत्रों को छेदसूत्र कहा जाता है । छेदसूत्रों में जैन साधुओं के आचार से सम्बन्धित प्रत्येक विषय का पर्याप्त विवेचन किया गया है । दशाश्रुतस्कन्ध का दूसरा नाम 'आचार दशा' भी है। इसमें जैनाचार से सम्बन्धित दस अध्ययन हैं । दस अध्ययनों के कारण ही इस सूत्र का नाम दशाश्रुतस्कन्ध अथवा आचार दशा रखा गया है । यह मुख्यतया गद्य में है । इस सूत्र के मूल प्रणेता तो श्री श्रमण भगवान् महावीर ही है किन्तु शिष्य परम्परा में उनके इस कथन को स्थिर रखने के लिये इसका संकलन श्री भद्रबाहूस्वामी ने किया। दस दशाओं में नवमी - दशा में
१. साहम्मि य वच्छलं, आहारातीहिं होइ सव्वत्थ ।
आएस गुरु गिलाणे, तवस्सिबालादि सविसेसं | वही। गा०२९, पृ०१८ || २. कामं सभावसिद्धं तु पवयणं दिप्पते सयं चेव । तहवि य जो जेण हिओ, सो तेण पभावते तं
तु ॥
॥ वही गाथा ३१, पृ. १९ ।। ३० द० श्रु० स्क० अनु० - आत्मारामजी म०, भूमिका, पृ. ६ ।।