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________________ अध्याय २ '३ निस्वितिगिच्छा - संतमि वि वितिगिच्छा, सज्झेज ण मे अयं अट्ठो' 'यह कार्य होगा या नहीं इस प्रकार यह वितिगिच्छा है । प्रत्यक्ष में यह ऐसा है परोक्ष में इस का फल मिलेगा या नहीं ? यह वितिगिच्छा है ।' वितिगिच्छा अर्थात् मति का विप्लव होना । जैसे यह स्थाणु है या पुरुष है ? आदि आदि । इस का त्याग अथवा इस से रहित होना निर्विचिकित्सा है। अन्य प्रकार से भी वितिगिच्छा की व्याख्या सूत्र में की हैजो साधु के मलिन वस्त्र पात्र उपकरण आदि देखकर निंदा, गर्दा करे विदुगुच्छा कही जाती है। पूर्व में कही वितिगिच्छा से यह विशेष हैं। ४. अमूढदृष्टि-परवादियों की अनेक प्रकार की ऋद्धि, पूजा समृद्धि, वैभव देखकर जो आकर्षित नहीं होता वह अमूढदृष्टि है। सुलसा अमूढदृष्टि है। ५. उववृहण-तपस्वी की, वैयावृत्य करना तथा विनय सज्झायादि से युक्त देखकर प्रशंसा करना वह उपबृंहण है । प्रशंसा करना, श्रद्धा.. श्लाघा करना वह है उपबृहण । ६. स्थिरीकरण जो संयम में साधु शिथिल हो रहा है उस में धैर्यता, स्थिरता उत्पन्न करना है अर्थान उसे प्रेरणा देना स्थिरीकरण है।' . १. विदु कुच्छत्ति व भण्णत्ति, सा पुण आहारमोयमसिणाई । .. तीसु.वि देसे गुरुगा, मूलं पुण सव्विहिं होती ॥वही।। गा.२५, पृ.१६॥ . २. विदु कुच्छति व भण्ण ति, सा पुण आहारमोयमसिणाई। . तीसु वि देसे गुरुगा, मूलं पुण सव्विहिं होती ।वही गा२२५, पृ०१६।। ३. गविधा इडढीओ, पूर्व परवादिणं चदठूणं । जस्स ण मुज्झइ दिट्ठी, अमृढ दिठं तयं बेति ॥वही।। गग०२६, पृ०१७॥ ४. खमणे वेयावच्चे, विणयसज्झायमादि संजुत्तं ।। जो तं पसंसए एस, होति उववृहणा विणओ। वही।। गा०२७. पृ०१८ । ५, एतेसु चिञ खमणादिएसु सीदंतवोयणा जा तु । बहुदोसे माणुस्से, मा सीद थिरीकरण मेयं । वही गा० २८, पृ०८॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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