SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप है कि "विशाखाचार्य ने इसकी रचना की।” विशाखाचार्य भद्रबाहू के अनन्तर ही हुए हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ वीर निर्वाण के १७५ वर्ष के आसपास तो बन ही चुका होगा।' अब हम निशीथसूत्रान्तर्गत सम्यक्त्व विषय पर अवलोकन करेंगेनिशीथसूत्र में दर्शनाचार आठ प्रकार के कहे हैं १. निःशंकित, २. निष्कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढदृष्टि, ५. उपबंड्ण, ६. स्थिरीकरण, ७. वात्सल्य और ८. प्रभावना ।। इस सूत्र में आगे इन आठों ही आचारों की व्याख्या की है तथा चूर्णिकार जिनदास गणि महत्तर ने इनके भेद दृष्टांत सहित कहे हैं। १. निःशंकित-इस की व्याख्या करते हुए कहा है-"संसयकरणं संका" अर्थात् संशय करना शंका है । यह शंका चूर्णिकार दो प्रकार : की बताते हैं कि१. देशशंका, एवं २. सर्वशंका। देशशंका किसी विषय में अंशतः भी शका करना । जैसे समान होने पर भी जीवों में भव्य और अभव्य भेद कैसे हो सकते हैं ? यह देशशंका है। सर्वशंका-समस्त द्वादशांग गणिपिटक प्राकृत भाषा में ही बना है, अथवा किसी कुशल व्यक्ति द्वारा कल्पित है, इस प्रकार की शंका सर्व शंका है। इस प्रकार शंका न करके निश्शंक रहना चाहिये । २. निष्कांक्षित-' कंखा अण्णोण दसणग्गाहो' अर्थात् अन्य अन्य दर्शनों की कांक्षा अर्थात् अभिलाषा करना यह कांक्षा है। जो इस से रहित है वह निष्कांक्षित है। १. निशीथ सूत्रम , भाग ४, प्रस्तावना, पं. दलसुख मालवणिया पृ. २४-२५ २.णिस्संकिय णिकंखिय, णिवितिगिच्छा अमृढदिट्टिय।। उववूह-थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ट वही।। प्र.भाग, गा.२३,पृ०१४॥ ३. वही प्रथम भाग, गाथा २४, पृष्ठ १५ ॥ ४. संसयकरणं संका, कंखा अण्णोणदंसण्गाहो। .. संतंमि वि वितिगिच्छा, सिज्झेज ण मे अयं अट्ठो ॥वही।। गा.२४, पृ.१५
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy