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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अर्थात् ३६ अपृष्ट व्याकरणों - उत्तराध्ययन रूप ३६ अध्ययनों का कथन करके, प्रधान नाम के अध्ययन मरुदेव्यध्ययन का चिंतन करते हुए निर्वाण पद को प्राप्त हो गये । ( कल्पसूत्रवाचना ११ वीं) इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तराध्ययन के निर्माता भगवान् महावीरस्वामी है और यह उनका अन्तिम उपदेश है । श्री हेमचन्द्रसूरि ने त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र में इसी सिद्धांत का अनुसरण किया है । ' ३६. अतः उत्तराध्ययन सूत्र के निर्माता ( अर्थ रूप से ), श्रमण भगवान् महावीर के अतिरिक्त और कोई नहीं है, यह ऐतिहासिक मत है । किंतु आधुनिक विद्वानों में जार्ल चापैन्टर आदि का मत है कि उत्तराध्ययन सूत्र किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है किन्तु यह एक संग्रह है जो कि विभिन्न समय में भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से उद्भूत हुआ है । अब हम उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व विषयगत विचार व विकास पर दृष्टिपात करेंगे । , सम्यक्त्व का स्वरूप क्या है ? इसका निरुपण करते हुए ग्रंथकार ने २८ वें मोक्षमार्ग नामक अध्ययन में कहा हैं तथ्यभावों के अर्थात् जीवाजीवादिक पदार्थों के सद्भाव में स्वभाव से या किसी के उपदेश से भावपूर्वक जो श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं । १ त्रिंशत्तमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरुरभावयत् ॥ त्रि. श. पु. पर्व १०, सर्ग १३, श्लोक २२४ ॥ २. दू उत्तराध्ययन सूत्र, जार्ल चार्पेन्टर, पृ. ४० ॥ ३. तहियाणं तु भावाणं सम्भावे उवएसणं । भावेण सदहंतस्त्र, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ अध्ययन २८ गाथा १५ ||
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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