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________________ अध्याय २ कहा जाता है। लेकिन इस ग्रन्थ के टीकाग्रन्थों से मालूम होता है कि भगवान् महावीर ने अन्तिम चौमासे में जो बिना पूछे हुए छत्तीस प्रश्नों के उत्तर दिये, उनके इस ग्रन्थ में संग्रहित होने के कारण इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा ।' उत्तराध्ययन सूत्र की रचना के विषय में कुछ मतभेद देखने में आता है। नियुक्तिकार तो इसके कतिपय अध्ययनों को दृष्टिवादांग से उद्धृत किया हुआ मानते हैं । कितनेक स्थलों को जिनभाषित कहते हैं और कितनेक प्रत्येकबुद्धादि रचित एवं अन्य स्थविरादि के द्वारा कहे गए स्वीकार करते है। - चूर्णिकार श्री जिनदास गणि महत्तर और बृहद्वृत्तिकार वादि वैताल श्री शान्तिसूरि ने भी नियुक्ति के इसी विचार को मान्य रखा है। परन्तु उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा और श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के निर्वाण संबंधी कल्पसूत्र के पाठ को : देखते हुए नियुक्तिकार का कथन कुछ विचार की अपेक्षा रखता है । उत्तराध्ययन सूत्र की अंतिम गाथा में लिखा है कि श्रमण भगवान् महावीरस्वामी ने उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों को प्रकट करने के · अनन्तर निर्वाण पद को प्राप्त किया ।' - कल्पसूत्र का निम्नपाठ भी इसी बात का समर्थन करता है.... "छत्तीसं अपुट्ठवागरणाई वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयण विभावेमाणे २ कालगए विइकन्ते समुज्जाए छिन्नजाइ जरामरणबन्धणे सिद्धे मुत्ते अंतगडेपरिनिव्वुडे सव्वदुक्खपहीणे ।” १. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग २, पृ. १४६ ॥ २. अंगप्पश जिणभासियाय पत्तेयबुद्ध संवाया ।। बन्धे मुक्खे य कश, छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ नियुक्ति गाथा ४ ॥ ३. इति पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीए संभए || गाथा २७०, प्रस्तावना उत्तराध्ययन सूत्र, आत्मारामजी म., पृ. ९-१०॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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