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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
इस प्रकार जिस समय जीव अबोधि ( मिध्यादृष्टि ) भाव से संचित किये हुए कर्म - रज को आत्मा से पृथकू कर देता है, वह लोकालोक को प्रकाश करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है । '
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यहाँ तक यह स्पष्ट है कि संयती सम्यग्दृष्टि ही होता है । पश्चात् एक तथ्य पुनः सम्मुख आता है
पहले ज्ञान है पीछे दया है। इसी प्रकार से सब संयत् वर्ग स्थित है अर्थात् मानता है । अज्ञानी क्या करेगा ? और पुण्य पाप के मार्ग को वह क्या जानेगा १२
यहाँ स्पष्ट है कि ज्ञान के पश्चात् दया अर्थात् विरति है और पूर्व में स्पष्ट हो चुका है कि विरति का मूल सम्यक्त्व है । पुण्य और पाप का मार्ग सम्यग्दृष्टि जान कर सम्यग्ज्ञानी बनता है । अतः सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है, यह तथ्य हमारे सामने आता है ।
इस प्रकार दशवैकालिक सूत्रान्तर्गत सम्यक्त्व सम्बंधी विचार व विकास पर दृष्टिपात कर अब हम उत्तराध्ययन सूत्र में इसका विकास, विचार देखें |
उत्तराध्ययन सूत्र
उत्तरज्झयण - उत्तराध्ययन जैन आगमों का प्रथम मूल सूत्र है । लायमान के अनुसार यह सूत्र उत्तर - बाद का होने से अर्थात् अंग ग्रन्थों की अपेक्षा उत्तरकाल का रचा हुआ होने के कारण उत्तराध्ययन
१. जया धुणइ कम्मरयं अबोहि कलसं कडं । तया सव्वतगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ।
अ. ४, गाथा २१, पृ. १३० ॥ २. पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजए !अन्नाणी किं काही ? किं वा नाही सेयपावगं ।
- दश. अ. ४ गाथा १०, पृ. १२० ॥