________________
अध्याय २
३३
इस सूत्र की रचना की तथा विकाल अर्थात् संध्या के समय पढ़े जाने के कारण इसका दशवैकालिक नाम पडा । '
यह तो निर्विवाद है कि इसके रचयिता शय्यंभव सूरि है । श्रमण भगवान महावीर से ७५ वें वर्ष से ९८ वें वर्ष के मध्य इस सूत्र की रचना हुई है। क्योंकि शयभवाचार्य का स्वर्गवास वीर निर्वाण सम्वत् ९८ वें है । अतः इसी के मध्य इस सूत्र की रचना हुई है ।
इस मूल सूत्र में सम्यक्त्व विषयक विचार आचारांग एवं सूत्रकृतांग की भाँति ही हुआ है जिसे इन दोनों सूत्रों के साथ दर्शाया जा चुका है। साथ ही मुनि को श्रद्धापूर्वक जीवन यापन करना चाहिये उसके लिए कहा है
" जिस श्रद्धा से संसार से निकल कर प्रव्रज्या प्राप्त करी है, उसी आचार्यसम्मत - गुणों में रही हुई श्रद्धा का साधु को पूर्ण दृढता के साथ पालन करना उचित है । "
जो. साधु अमोहदर्शी अर्थात् भ्रान्तिरहित यथावत् तत्त्व के स्वरूप . को जानने वाले हैं, वे पूर्वकृत कर्मों का क्षय करते हैं और नवीन कर्मों को नहीं बांधते हैं एवं निजात्मा को पूर्ण विशुद्ध बनाकर स्वस्वरूप में लाते हैं।
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग - २, पृ. १७९, दशवैकालिक
. सूत्र - आत्मारामजी म. प्रस्तावना पृ. ७ ।।
,
२. जाइ सद्वा नितो परिआयठाणमुत्तमं ।
तमेव अणुपालिजा, गुणे आयरिअ संमए ॥
अ. ८, गाथा ६१, पृ. ५०४ ॥ ३. खवंति अप्पाणममोह दंसिणो तवेरया संजम अजवगुणे । धुणन्ति पात्रा पुरे कडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥
अ. ६, गाथा ६८, पृ. ३८ ३८१ ॥