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१२.
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप जब प्रश्नकर्ता अन्यों के उदाहरण देखकर जानना चाहता है कि सत्य क्या है ? तो सूत्रकार कहते हैं-" वही यथार्थ है, सम्यक् है जो मैंने पूर्व में कहा है।"
इस प्रकार इस ग्रन्थ . में सभ्यक्त्व विषय का पूर्व ग्रन्थ की अपेक्षा विकास दृष्टिगोचर होता है१ यहाँ निःशंका, निःकांक्षा और निर्विचिकित्सा सम्यक्त्व के ये अंग
एक साथ प्रयोग में आए है। २ सम्यक्त्व का विषय जीव अजीव आदि तत्त्व है इसका स्पष्ट उल्लेख हैं। ३ मुनि के अलावा श्रमणोपासक भी सम्यग्दृष्टि हो सकता है, इसका __इस सूत्र में उदाहरण सहित कथन किया है। ४ अहिंसा, संयम, ज्ञान, तप, इन्द्रियनिग्रह के साथ यहाँ जीवादि
तत्वों के रूप धर्म के श्रद्धान ने सम्यक्त्व के स्वरूप को धारण
किया।
२. दशवकालिक सूत्र-उत्तराध्ययन हालांकि आचारांग और सूयगडांग के पश्चात् तृतीय अंग ठाणांग है। यहाँ मैंने उसका स्थान पश्चात् करके दशवकालिक आदि सूत्र को प्राथमिकता दी है। इसको प्राथमिकता देने का कारण यह है कि इन सूत्रों के रचयिता व उनका समय निर्धारित एवं विद्वानों द्वारा सम्मत है। वैसे दसवेयालिय/दशवकालिक जैन आगमों में तीसरा मूल सूत्र है। शय्यंभव सूरि इसके कर्ता है, जो कि श्रमण भगवान् महावीर के चौथे पट्टधर थे।
इस सूत्र की रचना कुछ उद्देश्यपूर्ण है। अपने पुत्र मणग का जीवनकाल शय्यंभव' सूरि ने दिव्य ज्ञान से जाना, और कम समय में वह आत्मोद्धार कर सके, इस अपेक्षा से पूर्वश्रुत में से, संक्षिप्तिकरण कर इस दशवैकालिक सूत्र का उद्धार किया। दस अध्यायों में १. तं सम्मं जं मए पुव्वं वुत्तं, चतुर्थ अध्य., स. ६४, पृ. २६९ ।।