SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन २ • उसका हृदय सम्यक्त्व से वासित था तथा उसकी अस्थि और मज्जा भी धर्मानुराग से अनुरंजित थी। वह कहता था हे आयुष्मान् ! यह निम्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, यही परमार्थ है अन्य सब अनर्थ है।' लेप गाथापति के पश्चात् उदक पेढालपुत्र ने जब इस धर्म के स्वरूप को जानकर श्रद्धा की उसका वर्णन है-" उदक पेढालपुत्र ने भगवान् गौतमस्वामी से कहा-" पूर्व में मैंने इस अर्थ में श्रद्धान नहीं किया, विश्वास नहीं किया, रुचि नहीं की। हे भदंत . अब इन पदों को मैंने जाना है, सुना है यावत् धारण किया है इसलिए अब इन पदों में श्रद्धा करता हूँ विश्वास करता हूँ और रुचि करता हूँ । यह बात वैसी है जैसी आप कह रहे हैं।२ इस प्रकार सोदाहरण यहाँ सम्यक्त्व श्रद्धान का विषय और स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। इसी प्रकार पंचमांग व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) में जमाली अणगार का उदाहरण है, शिव राजर्षि का उदाहरण है', तथा मंखलिपुत्र गोशालक के मिथ्यात्व त्याग और सम्यक्त्व ग्रहण के अध्यवसायों का उदाहरण है।' १. " से णं लेवे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था, अभिगय. जीवांजीवे जाव विहरइ, निग्गन्थे पावयण निस्संकिए निक्कंखिए • निधि तिगिच्छे लद्धठे गहियट्रे पुच्छियढे विणिच्छियठे अभि. - गहियठे अछिमिजापेमाणुरागरत्ते, आयमाउसो! निग्गन्थे पावयणे अयं अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अणठे"-सूत्र. सप्तम अध्य, गा. ६९, '. पृ. ३७९-३८० २. “तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी...एयमढें णो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोइयं, एतेसिं णं भते ! पदाणं पण्हिं जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमदठं सदहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेयं तुब्भे वदह । " वही. सप्तम अध्य, सू. ८१, पृ. ४४२-४४३ ॥ ३. भगवती, श. ९, उ. ३', पृ १७६०-६२ ॥ ४. भग., श. ११, उ. ९, पृ. १८९२ ॥ ५.भग., श. १५, पृ. २४२७ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy